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श. १६ : उ. ६-८ : सू. १०५-११२
भगवती सूत्र है, उस पर चढ़ता हुआ चढता है, मैं चढ़ गया हूं, ऐसा स्वयं को मानता है, वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। गंध-पुद्गल-पद १०६. भंते! कोष्ठ-पुट यावत् केतकी-पुट (रायपसेणइयं, सू. ३०) आघ्राता-गंध ग्रहण करने
वाले पुरुष की अनुकूल दिशा में खोले जा रहे हैं, ढक्कन उतारे जा रहे हैं, उत्कीर्ण किया जा रहा है, विकीर्ण किया जा रहा है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रांत किया जा रहा है, इस अवस्था में कोष्ठ-पुट नाक के पास आता है? यावत् केतकी-पुट नाक के पास आता है? गौतम! न कोष्ठ-पुट नाक के पास आता है, न केतकी-पुट नाक के पास आता है। गंधसह-गत पुद्गल नाक के पास आते हैं। १०७. भंते! वह एसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
सातवां उद्देशक १०८. भंते ! उपयोग कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है?
गौतम! उपयोग दो प्रकार का प्रज्ञप्त है-इस प्रकार पण्णवणा का उपयोग-पद (पण्णवणा, पद २९) निरवशेष ज्ञातव्य है और दर्शन-पद (पण्णवणा, पद ३०) भी ज्ञातव्य है। १०९. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
आठवां उद्देशक लोक के चरमान्त में जीव-अजीव-आदि का मार्गणा-पद ११०. भंते! लोक कितना बड़ा प्रज्ञप्त है?
गौतम! लोक विशालतम प्रज्ञप्त है, जैसे बारहवें शतक (भ. १२/१३०; २/३४) में वैसे ही यावत् परिधि में असंख्येय-योजन-क्रोडाकोड़-प्रमाण है। १११. भंते! लोक के पूर्व चरमान्त में क्या जीव हैं? जीव-देश हैं? जीव-प्रदेश हैं? अजीव हैं? अजीव-देश हैं? अजीव-प्रदेश हैं? गौतम! जीव नहीं हैं। जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं। अजीव भी हैं, अजीव के देश भी हैं, अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के देश हैं अथवा एकेन्द्रिय के देश और द्वीन्द्रिय का देश है-इस प्रकार दसवें शतक (भ. १०/६) में आग्नेयी-दिशा की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-देशों में प्रथम विकल्प-विरहित अनिन्द्रियों की वक्तव्यता। जो अरूपी अजीव हैं, उनके छह प्रकार हैं। अध्वा-समय नहीं है। शेष पूर्ववत् निरवेशष वक्तव्य है। ११२. भंते! लोक के दक्षिण चरमान्त में क्या जीव हैं?
पूर्ववत्। इसी प्रकार पश्चिम चरमान्त, इसी प्रकार उत्तर चरमान्त की वक्तव्यता।
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