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श. १६ : उ. ५ : सू. ६७-७१
भगवती सूत्र परिव्रजन, और सुखपूर्वक विहरण करते हुए जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां सहस्राम्रवन उद्यान
था यावत् विहरण करने लगे। परिषद् ने नगर से निर्गमन किया यावत् पर्युपासना करने लगी। ६८. गंगदत्त गृहपति इस कथा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया
यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। अपने घर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर पैदल चलते हुए हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां सहस्राम्रवन उद्यान था, जहां अर्हत् मुनिसुव्रत थे, वहां आया, आकर अर्हत् मुनिसुव्रत को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करने लगा। ६९. अर्हत् मुनिसुव्रत ने गंगदत्त गृहपति को उस विशालतम परिषद् में धर्म कहा यावत् परिषद्
लौट गई। ७०. गंगदत्त गृहपति अर्हत् मुनिसुव्रत के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठा, उठकर अर्हत् मुनिसुव्रत को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हूं। भंते! यह इष्ट है, भंते! यह प्रतीप्सित है, भंते! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसा आप कह रहे हैं, इतना विशेष है-देवानुप्रिय! मैं ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करूंगा फिर मैं देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊंगा।
देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो। ७१. गंगदत्त गृहपति अर्हत् मुनिसुव्रत के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हो गया। अर्हत् मुनिसुव्रत को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर अर्हत् मुनिसुव्रत के पास से सहस्राम्रवन उद्यान से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्कमण कर जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां अपना घर था, वहां आया, आकर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार करवाया, करवाकर मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों को आमंत्रित किया, आमंत्रित कर उसके पश्चात् स्नान किया, पूरण गृहपति (भ. ३/१०२) की भांति यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया। मित्र, ज्ञाति, कुटुम्ब, स्वजन, संबंधी, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र को पूछा, पूछकर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका में चढ़ा, चढ़कर चलने लगा, पीछे-पीछे चल रहे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र के साथ संपूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द के साथ हस्तिनापर नगर के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां सहस्राम्रवन उद्यान था, वहां आया, आकर छत्र आदि तीर्थंकरों के अतिशय को देखा. इस प्रकार उद्रायण (भ.१३/११७) की भांति यावत स्वयं ही आभरण उतारे, उतार कर स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया, लोच कर जहां अर्हत् मुनिसुव्रत इस प्रकार जैसे उद्रायण वैसे ही प्रव्रजित हुआ। उसी प्रकार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् एक मास की संलेखना से अपने शरीर को कृश बनाया, कृश बनाकर साठ-भक्त (भोजन के समय) का छेदन किया, छेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि प्राप्त कर कालमास में काल कर महाशुक्र-कल्प में महासामान्य-विमान में उपपात-सभा में देवशयनीय में यावत् गंगदत्त देव के रूप में उपपन्न हुआ।
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