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भगवती सूत्र
श. १५ : सू. १२२-१२९
पानक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. गाय की पीठ से गिरा हुआ २. हाथ के मर्दन से उत्पन्न ३. सूर्य के आतप से तप्त ४. शिला से प्रभ्रष्ट । यह है पानक ।
१२३. वह अपानक क्या है ?
अपानक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. स्थाल पानक २. त्वचा पानक ३. सिंबलि (मटर आदि की फली) का पानक ४. शुद्ध पानक ।
१२४. वह स्थाल-पानक क्या है ?
स्थाल - पानक- पानी से आर्द्र स्थाल, बारक (सिकोरा ), घड़ा, कलश अथवा शीतलक, जिसका हाथ से स्पर्श किया जा सके, किन्तु जिसे पीया न जा सके। यह है स्थाल-पानक । १२५. वह त्वचा पानक क्या है ?
त्वचा पानक—आम्र, अम्बाडक आदि पण्णवणा, प्रयोग - पद ( १६ / ५५ ) की भांति यावत् बेर अथवा तिन्दुरूक, जो तरुण और अपक्व है, उसे मुख में रखकर स्वल्प चूसे, अथवा विशेष रूप से चूसे किन्तु उसका पानी न पी सके । यह है त्वचा - पानक ।
१२६. वह सिंबलि-पानक क्या है ?
सिंबल - पानक-वार की फली, मूंग की फली उड़द की फली, अथवा सिंबली की फली, जो तरुण और अपक्व है, को मुंह में स्वल्प चबाता है अथवा विशेष चबाता है। यह है सिंबलि - पानक ।
१२७. वह शुद्ध पानक क्या है ?
शुद्ध पानक- जो छह मास तक शुद्ध खादिम आहार करता है, दो मास पृथ्वी- संस्तारक पर, दो मास काष्ठ - संस्तारक पर, दो मास दर्भ - संस्तारक पर सोता है, बहुप्रतिपूर्ण छह मास की अंतिम रात्रि में उसके ये दो देव प्रकट होते हैं, जैसे- पूर्णभद्र और माणिभद्र । वे देव शीतल और जलार्द्र हाथों से उसका स्पर्श करते हैं, जो उन देवों का अनुमोदन करता है, वह आशीविष के रूप में कर्म करता है, जो उन देवों का अनुमोदन नहीं करता है, उसके स्वयं के शरीर में अग्निकाय उत्पन्न हो जाता है। अग्निकाय अपने तेज से शरीर को जलाता है, जलाने के पश्चात् सिद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है । यह है शुद्ध पानक ।
अयम्पुल - आजीविकोपासक - पद
१२८. श्रावस्ती नगरी में अयंपुल आजीवक - उपासक रहता था - आढ्य, हालाहला कुंभकारी की भांति वक्तव्यता यावत् आजीवक सिद्धान्त के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहा था । उस अयंपुल- आजीवक उपासक के किसी एक दिन पूर्वरात्र - अपररात्र काल समय में कुटुंब - जागरिका करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-हल्ला नामक कीट किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ?
१२९. उस आजीवक - उपासक अयंपुल के दूसरी बार भी इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक
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