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श. १५ : सू. १०५-११०
भगवती सूत्र गोशाल द्वारा सर्वानुभति का भस्म-राशी-करण-पद १०५. सर्वानुभूति अनगार के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ
गया। वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर उसने सर्वानुभूति अनगार को अपने तपः-तेज से कटाघात की भांति एक प्रहार में राख
का ढेर कर दिया। १०६. मंखलिपुत्र गोशाल सर्वानुभूति अनगार को अपने तपः-तेज से कूटाघात की भांति एक प्रहार में राख का ढेर कर दूसरी बार भी श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षणा-युक्त वचनों से उद्घर्षण किया, उच्चावच निर्भर्त्सना-युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कार-युक्त वचनों से तिरस्कार किया, तिरस्कार कर इस प्रकार कहा-तुम कभी आचार से नष्ट हो गए, तुम कभी विनष्ट हो गए, तुम कभी भ्रष्ट हो गए, तुम कभी नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो गए। आज तुम
जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो सकता। गोशाल द्वारा सुनक्षत्र को परिताप-पद १०७. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का अंतेवासी कौशल जनपद का निवासी सुनक्षत्र नामक अनगार था। प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। धर्माचार्य के अनुराग से अनुरक्त था। इस अर्थ के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठने की मुद्रा में उठा, उठकर जहां मंखलिपुत्र गोशाल था, वहां आया, वहां आकर मंखलिपुत्र गोशाल को इस प्रकार कहा-गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का श्रवण करता है, वह उन्हें वंदन करता है, नमस्कार करता है, सत्कार-सम्मान करता है, कल्याणकारी, मंगल, देव, और प्रशस्तचित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है। गोशाल! भगवान् ने तुम्हें प्रव्रजित किया, भगवान् ने तुम्हें मुंडित किया, भगवान् ने तुम्हें शैक्ष बनाया, भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया, भगवान् ने तुम्हें बहुश्रुत बनाया, तुम भगवान् के प्रति ही मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न हो गए? इसलिए गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित
नहीं है। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, तुम अन्य नहीं हो। १०८. सुनक्षत्र अनगार के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया।
वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर उसने अपने तपः-तेज से सुनक्षत्र अनगार को परितापित किया। १०९. मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से परितापित होने पर सुनक्षत्र अनगार, जहां श्रमण
भगवान् महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वन्दन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर स्वयं ही पंच-महाव्रतों का आरोपण किया, आरोपण कर श्रमण-श्रमणियों से क्षमा-याचना की, क्षमा-याचना कर, आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त कर क्रमशः मृत्यु को प्राप्त हो गया। गोशाल का भगवान के वध के लिए तेज-निसर्जन-पद ११०. अपने तपः-तेज से सुनक्षत्र अनगार को परितापित कर मंखलिपुत्र गोशाल ने तीसरी बार
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