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भगवती सूत्र
श. १५ : सू. १०१-१०४
वाला, स्थिर संहनन वाला जानकर उसमें अनुप्रवेश किया। अनुप्रवेश कर सोलह वर्षों से इस सातवें 'पोट्ट परिहार'! में मैं रह रहा हूं। आयुष्मन् काश्यप! इसी प्रकार मैंने एक सौ तैतीस वर्षों में मेरे ये सात पोट्ट परिहार हुए हैं। यह मैं कहता हूं। इसलिए आयुष्मन् काश्यप! तुमने मुझे इस प्रकार अच्छा कहा। आयुष्मन् काश्यप! तुमने मुझे इस प्रकार साधु कहा-मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है, मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है। भगवान् द्वारा गोशालक के वचन का प्रतिकार-पद १०२. श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! जैसे कोई
चोर है। वह ग्रामीणों द्वारा कहीं पर भी गड्डा, गुफा, दुर्ग, निम्न स्थान, पर्वत अथवा विषम स्थान के न मिलने पर एक बड़े ऊन के कंबल से, सण के रोम से, कपास के बने हुए रोम से, तृण-सूत्र से अपने आपको आवृत कर बैठ जाता है, वह अनावृत होकर भी अपने आपको आवृत मानता है, अप्रच्छन्न होते हुए भी अपने आपको प्रच्छन्न मानता है, अदृश्य-छिपा हुआ न होते हुए भी अपने आपको अदृश्य मानता है। इसी प्रकार गोशाल! तुम अन्य न होकर भी अपने आपको अन्य बता रहे हो, इसलिए गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, अन्य नहीं है। गोशाल का पुनः आक्रोश-पद १०३. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में
आ गया। रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षणा-युक्त वचनों से उद्घर्षण किया, उच्चावच निर्भर्त्सना-युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कार-युक्त वचनों से तिरस्कार किया। तिरस्कार कर इस प्रकार कहा-तुम कभी आचार से नष्ट हो गए, कभी विनष्ट हो गए, कभी भ्रष्ट हो गए, तुम कभी नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो गए। आज तुम जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो सकता। १०४. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी पूर्वजनपद के निवासी सर्वानुभूति नाम का अनगार था। वह प्रकृति से भद्र और उपशान्त था। उसके क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु थे। वह मृदु-मार्दव-सम्पन्न, आलीन (संयतेन्द्रिय) और विनीत था। धर्माचार्य के अनुराग से अनुरक्त था। इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए वह उठने की मुद्रा में उठा, उठकर जहां मंखलिपुत्र गोशाल था वहां आया, वहां आकर मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा- गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण करता है, वह भी उन्हें वन्दन करता है, नमस्कार करता है, सत्कार-सम्मान करता है, कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त-चित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है। गोशाल! भगवान् ने तुम्हें प्रव्रजित किया, भगवान् ने तुम्हें मुंडित किया, भगवान् ने तुम्हें शैक्ष बनाया, भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया, भगवान् ने तुम्हें बहुश्रुत बनाया। तुम भगवान् के प्रति ही मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न हो गए? गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं हैं। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, अन्य नहीं है।
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