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श. १४ : उ. ९ : सू. १२३-१३०
भगवती सूत्र नौवां उद्देशक सरूप-सकर्म-लेश्या-पद १२३. भंते! भावितात्मा अनगार अपनी कर्म-लेश्या को नहीं जानता, नहीं देखता और सरूप तथा सकर्म-लेश्या वाले उस जीव को जानता-देखता है? हां गौतम! भावितात्मा अनगार अपनी कर्म-लेश्या को नहीं जानता, नहीं देखता और सरूप तथा सकर्म-लेश्या वाले उस जीव को जानता-देखता है। १२४. भंते! क्या सरूप और सकर्म-लेश्या वाले पुद्गल अवभासित, उद्द्योतित, तप्त और प्रभासित करते हैं? हां, करते हैं। १२५. भंते! कौनसे सरूप और सकर्म-लेश्या वाले पुद्गल अवभासित यावत् प्रभासित करते
गौतम! जैसे इन चंद्र-सूर्य देवों के विमानों से बाहर निकलने वाली प्रकाश रश्मियां प्रभासित करती हैं। इसी प्रकार गौतम! सरूप और सकर्म-लेश्या के पुद्गल अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करते हैं। आप्त-अनाप्त-पुद्गल-पद १२६. भंते! क्या नैरयिकों के पुद्गल आप्त-रमणीय हैं?
गौतम! नैरयिकों के पुद्गल आप्त नहीं हैं, उनके पुद्गल अनाप्त हैं। १२७. भंते! क्या असुरकुमारों के पुद्गल आप्त हैं? पुद्गल अनाप्त हैं? गौतम! असुरकुमारों के पुद्गल आप्त हैं, उनके पुद्गल अनाप्त नहीं हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। १२८. भंते! क्या पृथ्वीकायिक जीवों के पुद्गल आप्त हैं? पुद्गल अनाप्त हैं? गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के पुद्गल आप्त भी हैं और अनाप्त भी हैं। इसी प्रकार यावत् मनुष्यों की वक्तव्यता। वाणमंतरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों की असुरकुमार की भांति
वक्तव्यता। १२९. भंते! क्या नैरयिकों के पुद्गल इष्ट हैं? पुद्गल अनिष्ट हैं? गौतम! नैरयिकों के पुद्गल इष्ट नहीं हैं, उनके पुद्गल अनिष्ट हैं। जैसे आप्त की भणिति है,
वैसे ही इष्ट, कांत, प्रिय और मनोज्ञ पुद्गलों की वक्तव्यता। ये पांच दंडक हैं। देवों का सहस्र-भाषा-पद १३०. भंते! महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव हजार-रूपों का निर्माण
कर सहस्र भाषाएं बोलने में समर्थ हैं? हां, समर्थ हैं।
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