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नव पदार्थ
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४५. नारक जीवों का आयुष्य पाप प्रकृति है, कई तिर्यंचों का आयुष्य भी पाप है। असंज्ञी मनुष्य और कई संज्ञी मनुष्यों का आयुष्य विलापरूप पाप की प्रकृति प्रतीत होता है।
४६. जिन भगवान ने जिनके आयुष्य को पाप कहा है, उनकी गति और आनुपूर्वी भी पाप मालूम देती है। ऐसा मालूम देता है कि गति और आनुपूर्वी आयुष्य के अनुरूप होती है । पर निश्चित रूप से तो जिनेश्वर भगवान ही जानते हैं ।
४७. चार संहननों में जो बुरे हाड़ हैं, उन्हें अशुभ नामकर्म के उदय से जानें। इसी प्रकार चार संस्थानों में जो बुरे आकार हैं, वे भी अशुभ नामकर्म के उदय से प्राप्त होते हैं ।
४८. अत्यन्त निकृष्ट व अमनोज्ञ, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की प्राप्ति अशुभ नामकर्म के उदय से ही होती है । इस कर्म के उदय से ही ऐसे दुःखकारी पुद्गलों का संयोग मिलता है।
४९. कइयों के शरीर, उपांग, बंधन और संघातन अत्यन्त निकृष्ट होते हैं । वह अमनोज्ञ पुद्गलों का संयोग भी अशुभ नाम कर्म के उदय से होता है ।
५०. स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर - दशक होता है। इसके दस बोल हैं । नामकर्म के उदय से जीव के जैसे नाम होते हैं वैसे ही नाम कर्मों के होते हैं ।
५१. स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर होता है। उससे आगे-पीछे खिसका नहीं जाता। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जीव सूक्ष्म होता है, जिससे उसे सबसे छोटा सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है ।
५२. साधारण शरीर नामकर्म से जीव साधारण - शरीरी होता है । उसके एक शरीर में अनन्त जीव रहते हैं । अपर्याप्त नामकर्म से जीव अपर्याप्त अवस्था में ही मृत्यु प्राप्त करता है । इसी कारण वह जीव अपर्याप्त कहलाता है ।