SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नव पदार्थ ६७ ४७. बीस बातों से तीर्थंकर गोत्र का बंध बतलाया गया है। उनमें भी अनेक बोल समुच्चय हैं। इस प्रकार सिद्धान्त (जैन सूत्रों) में समुच्चय बोल अनेक हैं। बिना विवेक उन्हें कौन समझ सकता है। ४८. यदि सभी को अन्न-दान से अन्न पुण्य होता हो तब तो सभी बोलों के सम्बन्ध में यह बात समझो । अब मैं नवों ही बोलों का निर्णय कहता हूं । चतुर विज्ञ इसको सुनें । ४९. यदि सचित्त-अचित्त सब अन्न सबको देने से पुण्य होता है तब तो पानी, स्थान, शय्या वस्त्र आदि भी सचित्त- अचित्त सब सबको देने से पुण्य होगा । ५०. इसी तरह यदि मन पुण्य भी समुच्चय हो तब तो मन को दुष्प्रवृत्त करने से भी पुण्य होगा तथा वचन पुण्य भी समुच्चय हो तो दुर्वचन से भी पुण्य बंधना चाहिए । ५१. यदि काया पुण्य भी समुच्चय हो तो काया से हिंसा करने पर भी पुण्य होना चाहिए। इसी तरह नमस्कार पुण्य भी समुच्चय हो तो सबको नमस्कार करने से पुण्य होना चाहिए । ५२. अब यदि मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्ति से एकान्त - केवल पाप ही लगता हो तब तो नवों ही बोलों के सम्बन्ध में यह बात जानें। इस प्रकार समुच्चय की बात उठ जाती है। ५३. अब यदि यह मान्यता हो कि मन, वचन तथा काया की निरवद्य प्रवृत्ति से पुण्य होता है। तब नवों ही बोलों के सम्बन्ध में यह समझें । सावद्य से कोई पुण्य नहीं होता । ५४. यदि (पांचों पदों को छोड़कर) अन्य को नमस्कार करने से एकान्त पाप लगता हो तब अन्न आदि सचित्त देने में कौन पुण्य की स्थापना करेगा ? ५५. पुण्य निरवद्य करनी से होता है, सावद्य करनी से पाप लगता है । सावद्य और निरवद्य को कैसे जानें ? निरवद्य में खुद भगवान आज्ञा देते हैं ।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy