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________________ नव पदार्थ ६५ ३८. अन्न, पान, स्थान, शय्या, वस्त्र, मन, वचन, काया और नमस्कार पुण्य इस तरह नौ पुण्य (भगवान ने ) कहे हैं । ३९. पुण्य बंध इन नौ प्रकारों से होता है । इन नवों को ही निरवद्य जानें। इन नवों में ही जिन भगवान की आज्ञा है । उसकी पहचान करें । ४०-४१. कई कहते हैं कि भगवान ने नवों बोल समुच्चय (बिना किसी अपेक्षा भेद के) कहे हैं। सावद्य - निरवद्य, सचित्त-अचित्त, पात्र-अपात्र का भेद नहीं किया है। इसलिए सचित्त-अचित्त दोनों प्रकार के अन्न आदि देने का भगवान ने कहा है, तथा पात्र - कुपात्र दोनों को देने को कहा है, सबको देने में पुण्य है। ऐसा कहने वाले सूत्रों का नाम लेकर झूठ बोलते हैं । ४२. वे कहते हैं कि साधु, श्रावक इन पात्रों को देने से तीर्थंकर नाम आदि पुण्य प्रकृतियों का बंध होता है तथा अन्य लोगों को दान देने से अन्य पुण्य प्रकृति का बंध होता है। ४३. वे ठाणं सूत्र का नाम लेकर ऐसा कहते हैं और नवें स्थान में अर्थ दिखलाते हैं, परन्तु न होता हुआ अर्थ वहां घुसा दिया गया है भोले लोगों को इसकी खबर नहीं है । ४४. यदि 'अन्य को' देने से भी पुण्य होता है तब तो एक भी जीव बाकी नहीं रहता । परन्तु कुपात्र को देने से पुण्य कैसे होगा ? यह विवेक पूर्वक समझने की बात है 1 ४५. पुण्य के नौ बोल समुच्चय (बिना खुलासा) कहे गए हैं, ठाणं सूत्र के ९वें स्थान में कोई निचोड़ नहीं है । इसी तरह वंदना और वैयावृत्य के बोल भी समुच्चय कहे हैं। गुणीजनों से इनका मर्म समझ लें । ४६. वंदना करता हुआ जीव नीच गोत्र को खपाता है और उच्च गोत्र का बंध करता है तथा वैयावृत्य करने से तीर्थंकर गोत्र का बंध करता है । ये भी समुच्चय बोल हैं।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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