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________________ अनुकम्पा री चौपई २७७ ४२. एक साधु दूसरे साधु को जीव बताता है, वह तो स्वयं को पाप से बचाने के लिए बताता है। एक श्रावक यदि श्रावकों को नहीं बताता है तो उनको कौनसा पाप लगता है और कौनसा व्रत टूटता है?। ४३. श्रावक यदि श्रावक को जीव नहीं बताता है, तो पाप लगता है, यह तो वेशधारियों ने झूठा मत निकाला है। यदि श्रावकों का पारस्परिक संभोग(कल्प व्यवस्था) साधुओं जैसा ही हो तो कदम-कदम पर भरपूर पापबंध होता रहेगा। ४४. पाट (चौकी), बाजोट (तख्त) आदि सामान को साधु बाहर रखकर शौचादि के लिए जंगल जाए। पीछे जो साधु हैं, वे पाट-बाजोट आदि सामान को यदि वर्षा में भीगते हुए देखते रहें, उन्हें उठाकर भीतर न लाए तो प्रायश्चित्त आता है। ४५. रोगी, वृद्ध और ग्लान साधु की सेवा साधु यदि नहीं करे तो यह कार्य जिन आज्ञा के बाहर-विरूद्ध है। महामोहनीय कर्म का बंध करता है। वह इहलोक, परलोक दोनों को बिगाड़ता है। ४६. आहार, पानी साधु गोचरी (भिक्षा) से लाता है। उसे अपने संभोगी साधुओं के बीच बांट देने का विधान है। स्वयं लेकर आया है, इसलिए वह अधिक ले तो उसे चोरी का पाप लगता है और उसका विश्वास उठ जाता है। ४७. इस प्रकार के अनेक बोल हैं, वे कार्य संभोगी साधुओं के साथ नहीं करने से मोक्ष रूक जाता है, परन्तु ये सभी कार्य श्रावक, श्रावकों के लिए नहीं करता है तो उसे जरा भी दोष नहीं लगता है। ४८. श्रावकों के लिए यदि साधुओं की तरह संभोग व्यवस्था हो तो उन्हें भी साधुओं की तरह करना चाहिए। अज्ञानी लोग इस श्रद्धा का निर्णय नहीं निकालते बल्कि उन्होंने नीति से भ्रष्ट होकर गृहस्थों का आश्रय लिया है।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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