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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ४२. साधु तो साधां नें जीव वत्तावें, ते पोता रो पाप टालण रे काजें। श्रावक श्रावका ने जीव नही बतावे,
तो किसों पाप लागों किसों वरत भाजें॥
४३. श्रावक श्रावक नें न वतायां पाप लागों कहें,
ओ भेष धारयां मत काढ्यों कूडों। श्रावकारें संभोग साधां ज्यूं हुवें तो,
पग पग बंध जायें पाप रा पूरो॥
४४. पाट बाजोटादिक साध बारें मेलें, ठरलें मातरादिक कार्य जावें।
लारें ओर साधु त्यांने भीजतों देखें, जो ओळें न ल्यावें तो प्राछित आवें॥
४५. रोगी गरढा गिलाण साधु री वीयावच,
साधु न करें तों श्री जिण आगना बारें। महा मोहणी कर्म तणों बंध पाडे,
इह लोक नें परलोक दोनूं विगाडें॥
४६. आहार पांणी साधु वेहरे ने आंणे, संभोगी साधु नें वांटे देवा री रीतों।
आप आंण्यों जांण इधिको लेवें तो, अदत लागें नें जाों परतीतो॥
४७. इत्यादिक साध साधरें अनेक बोलां रों,
संभोगी साध सूंन कीयां अटकें मोखो। यांहिज बोलां रो श्रावक श्रावका रे,
न करें तो मूल न लागें दोखो॥
४८. श्रावक रे संभोग साधां ज्यू हुवें तों,
तो श्रावक श्रावका ने पिण इण विध करणों। ए सरधा रो निरणों न काटें अग्यांनी,
. त्यां विटल थइ लीयो लोकां रों सरणों॥