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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ १२. ग्रहस्थ नो सरीर ममता में, साध बेठों समता में।
रह्या धर्म सुकल ध्यान ध्याई, मूंआ गयां फिकर न काई॥
१३. इहलोग ने परलोग, जीवणो मरणों काम भोग।
ए तो पांचूई छे अतिचार, वांछ्यां नही धर्म लिगार॥
१४. आपणोई वांछे तो पाप, पर नो कुण घालें संताप।
घणों जीवणो वांछे अग्यांनी, समभाव राखें ते ग्यांनी॥
१५. वायरो विरखा सी ताप, रह्यो न रह्यो चावे तो पाप।
राज विरुध रहीत सुगाल, उपद्रव जावो ततकाल॥
१६. सात बोलां रो ए विसतार, ओळखीया ते अणगार।
घट माहे जो सुमता आवें, हुवा न हुवा एको ही न चावे॥
एकण में दे रे चपेटी, एकण रो उपद्रव मेटी। ए तो राग धेष नो चालो, दसवीकालक संभालो॥
१८. साधु बेठों नावा में आई, नावडीए नाव चलाई।
नावा फूटी माहे आवे पांणी, साधु देखें लोकां नही जांणी॥
१९. आप डूबें अनेरा प्रांणी, किणरी अणुकंपा नांणी।
वतायां वरत नों भंग, तिणरो साखी आचारंग॥
२०. सांनी कर साध जतावें, लोक कुसले खेमें घर आवें।
डूबा पिण साध न चावें, रह्या चावें तो तुरत वतावें॥
२१. मूंन साझ रह्या ते संत, तके करें संसार नो अंत।
परिणांमज राखें सेंठा, धर्म ध्यान माहे रहें बेंठा॥