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भरत चरित
३. आप जीते और मैं हारा । देवता इसकी साख भरेंगे। आप जैसा दुनिया में कोई नहीं है। मेरे जैसे लाखों हैं।
४. हम दोनों ने हिल-मिलकर बातें की हैं। आप आंख खोलकर देखो। मधुर वचन बोलो। मेरे मन की चाह को पूरा करो।
५. मैं बहुवरों के उलाहनों को अपने कानों से कैसे सुनूंगा। हे राजन् ! आपको छोड़कर जाने के लिए मेरे पैर ही नहीं उठ रह हैं।
६. आप ही मेरी आत्मा हैं और आप ही मेरी भुजा हैं। भाइयों के बिना मेरी दिशाएं ही शून्य हो गई हैं। हम आए थे वैसे ही घर चलें।
७. अट्ठानबे भाइयों ने मुझे लोभी जानकर उसी तरह एक साथ अकेला छोड़ दिया जिस तरह वर्ष ऋतु में गोबर को छोड़ देते हैं।
८. सूर्य सिर पर आ गया है। ताप से शरीर पसीने से भीग गया है। आप बैठकर द्राक्षा-खारक का भोजन करें।
९. आप यहां चारित्र लेकर खड़े हुए हैं। मैं अब राज्य कैसे कर सकता हूं। संसार में मेरी अच्छी नहीं लगेगी। अतः आप मेरी लज्जा रखें।
१०. अब आप मेरे पर कृपा करो, सुखपूर्वक राज करो। मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कर आप आज चारित्र न लें।
११. आप मेरे स्वामी हैं। मैं सेवक बनकर आपकी सेवा में रहूंगा। मेरे इस वचन को आप सत्य मानें। इसमें किंचित् भी झूठ नहीं है।
१२. मोहवश भरतजी ने इस प्रकार अनेक विलाप किए। सच्चे हृदय से बहुत कुछ कहा, पर बाहुबलजी ने किसी भी बात को स्वीकार नहीं किया।