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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० २. थाने बाबाजी री आंण, थांने रिषभजी री आण।
थे तो पिंडत चुतर सुजाण, थे तो म करों खांचा ताण।।
३. थे जीता हूं हारीयो जी, देव भरेसी साख।
थां सरीखा जग को नही जी, मुझ शरीखा जग लाख।।
४. आपे हिलमिल दोनूं वातां करी जी, जोवो आंख उंघाड।
बोलो मीठा बोलडा जी, पूरों मन रा लाड।।
५. बहूअर तणा
जातां पग वहें
ओलंभडा नही
जी, किम सांभलसूं जी, थाने मेली
कांन। रांन।।
६.
थेइज दिस
म्हारें आत्मां जी, थेइज म्हारें बांहि। सूंनी भायां विनां जी, आवो ज्यूं घर जाय।।
७. अठाणूं
सहू
एकण
दूर
समें परहस्यों
जी, मुझने लोभी जांण। जी, जिम वरसालें छांण।।
दूरे
८. माथें सूर्य
बेंसी भोजन
आवीयो कीजियें
जी, जी,
गरमी भीनो गात। खारक दाखनि वात।।
९. थे चारित ले उभा इहां जी, हिवें हूं किण विध करूं राज।
म्हारी आछी न लागें लोक में जी, तिणसूं राखो थे म्हारी लाज।।
१०. हिवें किरपा करो मो उपरें जी, तो सुखे करो थे राज।
आ अरज मांनो थे माहरी जी, तो चारित मत लो आज।।
११. थे ठाकुर हूं सेवग थको जी, रहतूं आप हजूर।
ए वचन साचो कर मानलो जी, तिणमें मूल नही छे कूड।।
१२. मोह तणे वस भरत जी रे, कीया विलाप अनेक।
साचें मन कह्यो घणो जी, पिण बाहूबल न मांनी एक।।