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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० १२. वळे फूल विरखा देवतां करी रे, कहें जीता बाहूबल राड।
जब फेर भरतजी वदलीया रे, राड करसां पंचमी वार।।
१३. जब बाहूबलजी फेर बोलीया रे, जोख सूं करो पांचमो संग्रांम।
ताला माहे आगो पाछों नही रे, थे नचिंत पूरों मन हाम।।
१४. पांचमी राड थापी मुष्ट तणी रे, ते प्रसिध लोक विख्यात।
मुष्ट उपाड दीधी भरतजी रे, करवा बाहुबल री घात।।
१५. मुष्ट लागी भरत रा हाथ री रे, तिणसूं वेदना हुइ अथाय।
जो इसरी लागे ओर पुरष रे रे, तो टूक टूक होय जाय।।
१६. बाहुबल किण विध मरें रे, ते चरम सरीरी साख्यात।
पिण क्रोध ऊपनों अति आकरो रे, जांण्यों करूं भरत नी घात।।
१७. हिवे भरत नरिंद में मारिवा रे, बाहुबल उपाडी मुष्ट।
तिण अवसर बाहुबल तणा रे, परिणाम घणा छे दुष्ट।।
१८ ॲ मोख गांमी छे बेह जणा रे, राजकाजें करें संग्राम।
ते पिण चारित ले मुगत सिधावसी रे, सारसी आतम काम।।