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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० २. निरदोष वस्त्र रत्न ने र, रूडी रीत सं पेंहस्या जांण रे।
ते मोल कर मूहयों अति घणो रे लाल, तोल में हलका वखांण रे।।
३. सुची पवित्र माला फूलां तणी रे, ते पांचूं वर्णां श्रीकार रे।
वळे वणक वळेपण रूपना रे लाल, रूडी रीत सूं कीयो अलंकार रे।।
४. आभरण मणी सोवन तणा रे, ठांम ठांम कीया अलंकार रे।
हार अर्धहार में तिसरीया रे लाल, ते तिण पेंहस्या , गला मझार रे।।
५. कडियां कणदोरों बांधीयो रे, लांबा झूबणो सोभे लहकंत रे।
ललति सुकमाल अति सोभता रे लाल, मस्तक केस महकंत रे।।
६. नाना प्रकारना मणी रत्न में रे, कडा पेंहत्या दोनूं हाथां माहि रे।
वळे बाह्यां में पेंहस्या बहिरखा रे लाल, त्यांसु भूजा थंभी रही ताहि रे।।
७.
कानें कुडल पेंहरीया रे, ते करता अतंत उद्योत रे। मस्तक मुगट अति दीपतो रे लाल, जांणे लागी झिगामिग जोत रे।।
८. हारें करी ढांक्यो रूडी परें रे, हिवडों तेहनों भली भांत रे।
एकपटों रूडो वस्त्र तेहथी रे लाल, उत्तरासंग कीयो कर खांत रे।।
९. मुद्रिका करनें पांचूं आंगली रे, पीली दीसे छे ताम रे।
वळे आभरण पेंहस्या छे अति घणा रे लाल , त्यांरा पूरा न कह्या छे नाम रे।।
१०. कहि कहि नें कितरो कहूं रे, कल्पविरख तणी परें जांण रे।
अलंक्रत विभूषत एहवो रे लाल, अति श्रेष्ट सिणगार वखांण रे।।
११. मस्तक छत्र धरावता रे, सकोरंट फूलमाला सहीत रे।
वळे च्यार चमर वीजावता रे लाल, वळे जय जय शबद वदीत रे।।
१२. एहवा मंगलीक शब्द बोलावतो रे, अनेक गणनायक तिणरे साथ रे।
वळे दंडनायक साथे घणा रे लाल, दूतपाल संधपाल विख्यात रे।।