________________
दुहा १. कोलाहल करता तेहनें, उभा __हेठा उतरीया मेंहल थी, केइ
मेहल कहवा
तिण लागा
ठांम। आंम।।
२.
केइ कहें भरतजी गेंहला हुआ, केइ कहें छे धन छक ताम। केइ कहें विद्या वावला हुआ, केइ राज छक कहें छे आंम।।
३. इण विध मुख मुख जू जूआ, बोलें आवें ज्यूं मन री दाय।
केइ चुतर विचखण इम कहें, चारित लीयों दीसें जें ताहि।
४. हिवें आया दरीखांने भरत जी, सभा जूड़ी छे ताहि।
आग्या लेइ तिहां भरत जी, बेंठा सिघासण आय।।
५. घणा राजा ने समझता जाणने, उपदेश दीयों तिण वार।
जीवादिक ना सरूप नों, कह्यों घणों विसतार।।
ढाळ : ७०
(लय : तूं तो समझ पदमनाभराय कहे तोनें)
थे तो समझों रे समझों राजांन, श्री जिण धर्म में जी।। १. हिवें सुणजों थे सहू राजांन, थें चित्त लगायनें जी।
म्हें तो लीधों छे चारित निधान, सुमता रस ल्यायनें जी।
२. म्हें तों छोड्यों छ खंड रो राज, ममता सर्व परहरी जी।
सर्व छोडी सघली रिध आज, सुमता रस मन धरी जी।।