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दुहा १. आभूषण पेंहरण थकां, कीया सर्व सावध रा त्याग।
ते पचख्या मन परिणाम सूं, वळे चढीयों में अतंत वेराग।
२.
भरत नरिंद में तिण अवसरे, सुभ घणा परिणाम। अधवसाय रूडा प्रस्थ भला, लेस्या विसुध सुक्लादिक ताम।।
३. इहापोहा मारग विचारणा, निरणों करतों अतंत।
जब च्यार कर्म घनघातीया, त्यांरो कीयों तिण ठांमें अंत।।
४. आरीसा
च्यारूं
भवन मझे, भरत नरिंद राजांन। कर्म तिण ठांमें खय करे, पांम्यां केवल ग्यांन।।
५. सयमेव भरतजी उतारीया, आभरण ने अलंकार।
पांच मुष्टी लोच स्वमेव कीयों, छोड्यों गृहस्थ नों आकार।।
६. आरीसा भवन थी नीकल्या, नीकलें अंतेउर मझार।
त्यांरो सरूप देख अंतेउरी, धसको पड्यों तिण वार।।
ढाळ : ६८ (लय : जी हो धनो सालभद्र दोय)
जी हो भरतेसर भावना भाय, हुआ मेंहलां माहे केवली जी।। १. अंतेवर तिण वार, साधु नो रूप देख रूदन करे रे।
कोलाहल हूवों मेंहलां मझार, ते उछल उछल धरती पडें रे॥
२. देखें साधु रो सांग, शब्द मोटे मोटें रोवती रे।
बोलें पाडती-पाडती बांग, भरत नरिंद स्हामों जोवती रे॥