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भरत चरित
४१५ ७. मैंने काम-भोगों का भोग किया। वे सब जहर के समान हैं। मुझे मोहवश वे मीठे लगे थे।
८. मेरा अप्सराओं की मुखाकृति वाला चौसठ हजार का अंत:पुर है। पुण्य योग से मुझे प्राप्त हुई, पर ये सब नरक में ले जाने वाली हैं।
९. पहले भी अनेक चक्रवर्ती हुए हैं। कहते-कहते उनका पार नहीं आता। कामभोग में मुग्ध होकर मर कर वे निश्चय ही नरक में गए।
१०. कामभोग किंपाक फल के समान हैं। भोगते समय तो मीठे लगते हैं पर आगे दुःखों की खान हैं।
११. मेरे पास चौदह रत्न तथा नौ निधान हैं। इनसे आत्मा के काम सिद्ध नहीं हो सकते। मुक्ति सुखों की क्षति होती है।
१२. मैंने जो-जो कार्य किए उनमें किंचित् भी सार नहीं है। यदि मैं इनको छोडूंगा नहीं तो अनंत संसार बढ़ जाएगा।
१३. मैंने पूर्व में भी अनंत भव किए हैं। कहते-कहते उनका पार नहीं आता। जिनधर्म के बिना यह जीव संसार में भटकता है।
१४. जो ऋद्धि-संपत्ति प्राप्त हुई है उसमें कणभर भी सार नहीं है। यदि मैं इनमें अनुरक्त रहा तो नर अवतार को हार जाऊंगा।
१५. मेरे निन्नाणु भाई राज्य छोड़कर अणगार बन गए। मैं यदि राज्य में अनुरक्त रहा तो मेरा जीवन धिक्कार योग्य होगा।
१६. अब राज, ऋद्धि, रमणियों को छोड़कर उत्साह से चारित्र ग्रहण करूं। साधना कर मुक्ति में जाऊं तभी मेरे मन की अभिलाषा पूरी होगी।