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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१०
१. हिवें
छ
ढाळ : ६६ (लय : सोरठियां दुहां की) भरत तिण वार रे, भोग मनोगन भोगवें। खंड तणा सिरदार रे, राज रीत सर्व जोगवें।।
२. छ खंड केरो राज रे, करता विचरें , भरत जी।
त्यांरों किण विध सीझें काज रे, एक मना थइ सांभलो।।
३. एक दिवस मझार रे, सिनांन करेनें भरत जी।
ते करे घणों सिणगार रे, आया आरीसा भवण में।
४. तिहां बेंठा सिघासण आय रे, पूर्व दिस सनमुख करी।
निज रूप निरखें छे ताहि रे, ते देख-देख हरखत हुवें।।
५. बेंठा थका तिण वार रे, नही हाथ री मंदडी।
जब देही जाण असार रे, प्रतिबूध्या भरतेसरू।।
६. जब एक आंगुली ताम रे, अडोली दीसें वूरी।
जब विचार करे तिण ठाम रे, उसभ कर्म दूरा हुआ।