________________
दोहा
१. भरतजी के कोई भी बैरी-दुश्मन नहीं हैं। मनचिंतित कार्य करते हुए, मन के मनोरथों को पूर्ण करते हुए वे सुखपूर्वक राज्य करते हैं।
२. वे इंद्र के समान दिन-प्रतिदिन सानंद निर्भय होकर छह खंड का राज्य करते हैं। मनोज्ञ कामभोग का सेवन करते हैं।
३. उनका पूरा काल कामभोगों में ही बीतता है। किंचित् भी चिंता-फिक्र नहीं है। भरत नरेंद्र के सुखों का पूरा विस्तार कहना असंभव है।
४. पूर्व तप के प्रभाव से ऐसे सुख प्राप्त हुए हैं। तप करते समय जिन पुण्यों का बंधन हुआ था वे ही आकर उदित हुए हैं।
५. कथा में ऐसा कहा जाता है कि भरतजी ने विचार किया कि कहीं ऐसा नहीं हो कि मैं काम-भोगों में आसक्त रह कर राज्यकाल में ही मर जाऊं?।
६. निश्चय ही मुझे काम-भोगों को त्यागकर साधुत्व ग्रहण करना है। कहीं ऐसा नहीं हो कि मैं व्यर्थ ही भूल में पड़ा रह जाऊं? इसलिए मुझे ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे वह स्मृति बनी रहे ।।
ढाळ : ६३
भरत शुभ भावना भाते हैं। १. अब भरत नरेंद्र मन में चिंतन करते हैं- मुझे निश्चय ही संयमभार ग्रहण करना है। यदि मैं राजा रहते हुए मरा तो निश्चय ही नरक में जाऊंगा।