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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० १० अभीषेक मंडप जिहां भरत जी बेंठा, विनों कीयों आण हुलासों जी।
राज अभीषेक काजें कीया ते, आंण मेल्या भरत जी रे पासो जी।।
११. जब बत्तीस सहंस मुकटबंध राजा, सोभनीक भली तिथ जांणी जी।
वळे निरमलों दिवस ने नखत्र रूडों, मोहरत रूडो पिछांणी जी।।
१२. उत्तरा भद्रपद नखतर रूडो, विजय मुहरत चोखी जांणो जी।
तिण काले राज अभीषेक करावें, राज बेंसाणे मोटें मंडाणों जी।।
१३. आठ सहंस ने चोसट कलसा जल भरीया, सुरभी गंधोदक त्यांमें पांणी रे।
त्यांने आभीयोगी देव वेकें कीया ते, कमल उपर मेल्या , आणी रे।।
१४. तिण सुरभी गंध जल करने राजांन, मस्तक उपर जल ढोयो ताह्यों रे।
राज अभीषेक करायों मोटें मंडाणे, जूओं जूओं सगलाइ रायों रे।।
१५. इण विध सेनापती गाथापती रत्न, वढइ ने प्रोहित तिण वारो रे।
तीनसों में साठ रसोइदार सारा, वळे श्रेणी प्रश्रेणी अठारो जी।।
१६. वळे इसर तलवर सार्थवाह ते, इत्यादिक सारा आया ते जांणो जी।
त्यां पिण अभीषेक राजा ज्यूं करायो, जूोंजूोंजल सिंच्यो छे आंणो जी।।
१७. वळे सोलें सहंस देवता आया त्यां पिण, अभीषेक करायों में एमो रे।
त्यां सुखमाल वस्त्र अनोपम, तिणसूं अंग लूह्यों धर पेमो रे।।
१८. चंदण चरच में वस्त्र गेंहणा पेंहराया, वळे मस्तक मुगट पहरायो रे।
इत्यादिक आभूषण विविध प्रकारें, सारो सिणगार देवां करायो रे।।
१९. देवतां सिणगार करायो ते भरत जी, जांणे सर्व तमासो रे।
त्यांने पिण त्यागेनें संजम लेसी, मुगत में जाय करसी वासो रे।।