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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० एक एकीका देवता जी, चंदरवा बांधे ठाम ठांम। केइ गोसीसा चंदण तणा जी, छापा देवें अभिरांम।।
केइ रक्त चंदण तणा जी, ठाम ठांम छापा दें ताहि। केइ फुल तणी विरखा करें जी, नगरी बाहिर में माहि।।
केइ ठाम ठांम करें धूपणों जी, अगर तगर उखेव। केइ सुगंध तणी विरखा करें जी, एकीका देवता सयमेव।।
९. केइ रूपा तणी विरखा करें जी, केइ सोवन वरसावें ताम।
केइ रत्न तणी विरखा करें जी, माहि ने बाहिर ठाम ठांम।।
१०. केइ देवता वजर हीरां तणी जी, विरखा करें तिण वार।
केइ आभरण विविध प्रकार ना जी, त्यांरी विरखा करें वारूंवार।।
११. केइ मांचा उपर मांचा मांडता जी, रूडी रीत रचें छे ताम।
इत्यादिक कीया सर्व देवता जी, भरतजी रा महोछव काम।।
१२. घर घर रंग वधावणा जी, घर घर मंगलाचार।
घर घर गावें गीतडा जी, मुख मुख जय जयकार।।
१३. घर घर महोछव जू जूआ जी, महोछव मंडाणा ताहि।
रंगरली घर घर हुइ जी, मन माहे हरष न माय।।
१४. वळे वनीता नगरी मझे जी, प्रवेस करत तिणवार।
तीन च्यार मारग मिलें तिहां जी, वळे माहापंथ मझार॥
१५. तिहां केइ अर्थनां लोभीया जी, ते मुख सूं करें गुणग्राम।
केइ अर्थी कांमभोग ना जी, लाभ अर्थी छे तांम।।
१६. केइ अर्थी छे विविध प्रकार नी जी, रिध ना अर्थी अनेक।
ते पिण तिहां आए मिल्या जी, त्यांर जू जूइ चाहि विशेख।