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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० १४. छत्र रत्न छाया करें रे, जाझेरो अडतालीस कोस।
ते सीत तापादिक परहरें रे, टल जाों विरक्षादिक दोस।।
१५. चर्म रत्न हेठे विस्तरे रे, नावा भूत पिछांण।
जाझेरो अडतालीस कोस में रे, मिलीयों , पुन परमाण।।
१६. दंड रत्न पर्वत पहाड ने रे, भांज करें चकचूर।
विषम जायगा में सम करें रे, ऊंच नीच करें सर्व दूर।
१७. असी खडग रत्न , एहवो रे, वजरादिक ने देवें काट।
कठण घणी वस्तु तेहनें रे, काट करे दोय वाट।।
१८. मणी रत्न घणों रलीयांवणो रे, तिणरों , अतंत उजास।
जाझेरो अडतालीस कोस मे रे, करें चंद्रमा जेम परकास।।
१९. कागणी रत्न कनें थकां रे, घाव न लागें छे ताहि।
वळे घाव लागां उपर फेरीयां रे, घाव तुरत मिल जाय।।
२०. सेन्यापती रत्न छे
लाखां गमे दल
एहवों रे, ते सेना
तेहनें रे, भांग
रो करें
नायक सूर।
चकचूर।।
२१. गाथापती रत्न में गुण घणा रे, ते धान नीपावें , ताहि।
धांनादिक वावें परभात रो रे, लूणे , दिन थकां जाय।।
२२. वढइ रत्न
वळे करें
सेन्या भणी रे, घर करे जथाजोग सेल। भरत नरिंद रे रे, बयालीस भोमीया म्हेंल।।
२३. प्रोहित रत्न परधान छ रे, ते करवा में सतकर्म। . तिणरा पिण गुण छे अति घणा रे, ते पिण रत्न , परम।।
२४. अनोपम रत्न , अस्त्री रे, ते गुण रत्नां री भंडार।
इण सरीखी नही दूसरी रे, आखाइ भरत मझार।।