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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ९. वनीता नगरी दीठां थकां, परमोद हरखवंत हुवै लोग।
तिण दीठां चित्त प्रसन हुवे, वारंवार , देखवा जोग।।
१०. देखणवाला ना जूजूआ, प्रतिबंब दीसे तिण माहि।
तिणरों विस्तार में अति घणो, ते पूरों केम कहवाय।।
११. तिण नगरी रों अधिपती, रिषभ जिणेसर जाण।
त्यांरो थोडों सों वर्णव करूं, ते सुणजो चुत्तर सुजाण ।।
ढाळ : १ (लय : मम करो काया माया कारमी)
___ पुन तणा फल एहवा।। १. ते रिक्षभ जिणंद मोटा राजवी, हेमवंत ज्यूं प्रसिध विख्यात रे।
ते पुत्र , नाभराजा तणों, मोरादेवी राणी रों अंगजात जी।।
२. इण अवसरपणी काल में, हूआ , प्रथम राजांन जी।
ते प्रथम तीर्थंकर दीपता, गुणरतनां री छे खांन जी।।
३. त्यांरो मात-पिता रो कुल निरमलो, ते जुगलीयां तणी छे ओलाद जी।
ते चव आया स्वार्थ सिध थकी, त्यांरे सरीर रे परम समाध जी।।
४. एक सहंस में आठ लखणां करी, सरीर सोभे , अनूप जी।
सोवनवरणी काया तेहनी, त्यांरो इचर्यकारीयो रूप जी।।
५. रिषभदेव कुमरपणे रह्या, वीस लाख पूर्व लग जांण जी।
पछे जुगलीया धर्म दूरों करे, राज बेठा छे मोटे मंडाण जी।।
६. ते राज करें , रूडी रीत सूं, खोटी नहीं छे त्यांरी नीत जी।
ते रेत रिख्या सावधान छे, त्यांमें असल राजा तणी रीत जी।।
७. कला बोहीत्तर पुरुष नीं, चोसठ महिला ना गुण ताहि जी।
वळे विगनांन कर्म एकसों, ए तीनूं दीया लोकां ने सीखाय जी।।