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दोहा
१. ऐसा सेनापतिरत्न काम-भोगों को भोगता हुआ सुख में अपना समय व्यतीत कर रहा है। वह भरतजी की आज्ञा का प्रतिपालक है ।
२. भरतजी ने पूर्व भव में जो पुण्य अर्जित किए थे, वे आकर उदित हुए हैं। छह खंड का राज्य भोग रहे हैं, यह तप-संयम का ही परिणाम है ।
३. उनकी ऋद्धि का बड़ा बड़ा विस्तार है। लोकों में उनकी बहुत यशकीर्ति है । उनका आज्ञा-निर्देश तथा सुख भी बहुत बड़ा है I
४. अब भरतजी के कैसे-कैसे पुण्य उदित हुए हैं तथा वे उन्हें किस प्रकार भोगते हैं उसका थोड़ी-सा नमूना प्रस्तुत करता हूं उसे चित्त लगाकर सुनें ।
ढाळ : ३३
ऐसा है ऋषभदेव का पुत्र भरत ।
१. . सूर्य के समान प्रकाश करने वाला चक्ररत्न जिनके आकाश में चलता है तथा सेना पीछे-पीछे चलती है।
२. भरतजी की सेना का पड़ाव अड़तालीस कोस लंबा और छत्तीस कोस चौड़ा होता है।
३. उनके पुण्य का प्रबल संचय है। शत्रु- वैरी दूर भाग गए हैं या नतमस्तक हो गए हैं, इसलिए वे आनंदित हैं।
४. वे अपनी प्रजा के संरक्षक हैं। सबको हितकारी लगते हैं । सब राजाओं को भी उन्होंने अपनी प्रजा के समान बना लिया है।