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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ७. सूर्य उगें वायां हो आथमीयां पहली नीपजे, तिण दिवस लुणे छे ताहि।
इसरा इसरा गुण छे हों इण चर्म रत्न मझे, ते उपनों पुन पसाय।।
८. विरखा में वरसंते हो चक्रवर्त्त फरसे हाथ सुं, जब तिरछों विसतर जाय।
बारें में जोजन हो जाझेरों लांबों विसतरें, सर्व सेन्या हेजें ताहि।।
९. तिण चर्म रत्न में हों सेनापती हाथे फरसीयों, नावा भूत हुवों ततकाल।
नावा सरीखों हो सिंधू नदी में उपरें, कीयों चर्म रतन विसाल।।
१०. चरम रत्न में हो अधिष्टायक सहंस देवता, रहें चर्म रत्न रे पास।
ते महिमा वधारें हो चर्म रत्न री देवता, इणरा गुण प्रमाणे तास।।
११. चर्म रत्न छे हों अमोलक इण भरतखेत में, इसरों वळे दूजो नांहि।
भरत चक्रवत्त रें हों पुन जोगें आय उपनों, आवधसाला रे माहि।।
१२. जब सुसेण सेनापती हो सगली सेन्या सहीतसूं, सर्व हाथी घोरादिक जाण।
ते सगला चढीया छ हो नाव भूत चर्म रत्न पें, तिण उपर बेठा आंण।।
१३. सिंधू नदी उतरीया हो सगलाइ चर्मरत्ने करी, तिहां ऊंची घणी जल कलोल।
सिंधू नदी नों पांणी हो निरमल ऊंडो अति घणों, वळे उठे घणा हिलोल।।
१४. एहवो रत्न अमोलक हो भरतजी रें उपनों, ते पूर्व तप फल जांण।
तिणनें पिण छिटकासी हो भरतजी संजम आदरे, इण भव जासी निरवांण।।