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भरत चरित
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११. राजेश्वर भरतजी ने हाथ में धनुष लेकर प्रभाष देव के भवन में फेंका।
१२. बाण को देखकर प्रभाष देव के भी पूर्वोक्त मागध देव की तरह ही द्वेष
जागा।
१३. मन में विचार करने पर जाना भरतक्षेत्र में भरतजी अधिपति के रूप में खड़े हुए हैं।
१४. मेरा जीत व्यवहार है कि मैं उपहार लेकर वहां जाऊं।
१५,१६. उसने रत्नों की माला, मुकुट, स्वर्ण-मोतियों की जालियां, हाथों में पहनने के लिए कड़े, भुजबंध आदि अनेक मनोहर आभरण लिए।
१७. भरतजी का अभिषेक करने के लिए प्रभाष तीर्थ का विशिष्ट पानी तथा नामांकित धनुष भी लिया।
१८. इन सबको लेकर उल्लास से भरत नरेंद्र के पास आकर आकाश में खड़ा हुआ।
१९. हाथ जोड़कर शीश झुकाकर नमस्कार-प्रणाम कर उपहार भरतजी के मुंह के सामने प्रस्तुत कर दिया।
२०. मैं आपके पश्चिम दिशा का रखवाला, कोटपाल, किंकर, सेवक हूं।
२१. इस प्रकार बार-बार शीश झुकाकर गुणगान कर प्रशंसा करने लगा।