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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१०
ढाळ : २२
(लय : थे तो जीव दया धर्म पालो) १. चक्ररत्न ने आकासें देखो रे, भरतजी हुआ हरष विशेखो।
मागध तीर्थ देव नें आपो रे, तिणनें निज सेवग थापो।।
२. वरदांम तीर्थ साजण कामो रे, सेवग में तेडी कहें आंमो।
घोडा हाथी रथ पायक ताह्यो रे, चोरंगणी सेन्या सज जायो।।
३. पटहस्ती सिणगार तूं जायो रे, कहिनें पेंठा मंजण घर माह्यों।
सिनांन करे नीकल्यों नरिंदो रे, जाणे निरमल पुनम रों चंदो।।
४. मस्तक छत्र धरावें रे, दोनूं पासें चमर वीजावे।
पाछे कह्यों , तिम सर्व जाणो रे, नीकलीयों छे मोटें मंडांणो।।
घणा सुभटां रे बंदो रे, विट्यों थकों भरत नरिंदो। केकां रें हस्त छे खडग भारी रे, केका रे तरवार उघाडी।।
केका रें हस्त में छे बांणो रे, केका रे हस्त धनुष पिछांणो। केकां रे हाथ फरसी विख्यातो रे, केकां रे त्रिसुल छे हाथो।
७. इत्यादिक सस्त्र अनेको रे, तेतो पूरा न कह्या छे विशेखो।
त्यांरो जूआ जूआ वरण पिछांणों रे, जंबूदीप पन्नंति सूं जांणो।।
८.
धजा पताका अनेक विख्यातो रे, जूआ जूआ लीया हाथो। सीहनाद ज्यूं बोलें सूरा रे, ते तो हरष विनोद में पूरा।।
९. घोडा कर रह्या छे हीसारा रे, त्यांरा शबद लगा , प्यारा।
हस्ती गुलगुलाट करंता रे, ते अंबर जेम गाजंता।।
१०. रथ करे रह्या घणा घणाटो रे, त्यांरा अनेक मिलीया छे थाटों।
वाजा विविध प्रकार ना वाजें रे, जांणे आकासें अंबर गाजें।