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भिक्षु वाङ्मय - खण्ड- १०
अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। चरणकरणानुयोग की दृष्टि से आचार की चौपई, बारहव्रत चौपई आदि रचनाएं प्रमुख मानी जाती हैं।
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गणितानुयोग पर उनकी कोई कृति उपलब्ध नहीं होती। पर यह सही है कि उनका गणित का ज्ञान प्रौढ़ था । स्वर - विज्ञान तथा शकुन विज्ञान से तो वे परिचित थे ही। पर उनका ज्योतिष विज्ञान भी निर्मल था । उन्होंने संवत् १८१७ में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के सूर्यास्त के आसपास ७ बजकर २५ मिनट पर तेरापंथ की नींव डाली थी, यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण काल-गणना का प्रतीक है। ज्योतिष के ज्ञान के बिना ऐसा मुहूर्त्त निकाल पाना बहुत कठिन है । यह मुहूर्त उन्होंने स्वयं निकाला या किसी गणितज्ञ से निकलवाया यह कहना कठिन है, पर ज्योतिर्विदों का फलादेश बताया है कि इस घड़ी पल स्थापित होने वाला संघ हजारों वर्ष तक अविकल - अविचल रूप से चलेगा ।
यह सुनिश्चित है कि उन्होंने कथानुयोग पर सर्वाधिक पद्य साहित्य की रचना की है। प्रस्तुत भरत चरित्र उनकी महत्त्वपूर्ण कृति है।
आचार्य भिक्षु का सारा आख्यान साहित्य संगीतमय है । वैसे सृष्टि की समस्त रचना भी संगीतमय ही है । जिसे अनहदनाद कहा जाता है । शब्द में दो प्रकार की क्षमता होती है । एक अर्थ अभिव्यक्ति की तथा दूसरी ध्वनि - प्रकंपन की। पहली क्षमता भावात्मक है। वह हमारे भावतंत्र को प्रभावित करती है । दूसरी क्षमता भौतिक है। वह हमारे शरीर तंत्र से गुजर कर भावतंत्र को भी प्रभावित करती है। आचार्य भिक्षु ने अपने काव्य से भावतंत्र को तो प्रभावित किया ही है पर उसका अपना साहित्यिक मूल्य भी है। साथ ही साथ उसमें ध्वनि तत्त्व की भी एक गहरी संयोजना है।
वैज्ञानिकों का अभिमत है कि संगीत का स्वर शरीर में एक प्रकार का प्रकंपन पैदा करता है, जिससे रक्त संचार तेज होता है। उससे विषैले तत्त्व निवारित होकर निसर्ग मार्गों से बाहर प्रवाहित हो जाते हैं। असल में ध्वनि तरंगों की विशेष आवृत्ति से मानव मस्तिष्क की रासायनिक- विद्युतीय संरचना प्रभावित होती है । इससे एंडोरफीन तत्त्व का स्राव शुरू हो जाता है। उससे सुख-दुख, उन्माद-शोक आदि भावनाओं का केन्द्र लिम्बिक सिस्टम के न्यूरोन एंडोरफीन को संग्रहित कर लेता है । फलतः मानसिक रोग के कारण अव्यवस्थित जैव विद्युतीय परिपथ सामान्य परिस्थिति में आ जाता है। संगीत के माध्यम से इलेक्ट्रोमेग्नेटिक क्षमता उत्पन्न होती है जो स्नायुजाल पर वांछनीय प्रभाव डाल कर उसकी सक्रियता को ही नहीं बढ़ाती अपितु विकृत चिंतन को रोक कर मनोविकार को भी मिटाती है।
आचार्य भिक्षु के जमाने में भले ही यह वैज्ञानिक शोध प्रस्तुत नहीं हुई हो पर वे