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भरत चरित
१११ २. हारों से उनका हृदय सुशोभित हो रहा है। कानों में कुंडल उद्योत कर रहे हैं, मस्तक पर मुकुट दीप रहा है। ऐसा लगता है जैसे झगमग ज्योति जल रही हो।
३. चतुरंगिनी सेना और प्रधान सुभटों को साथ लेकर छह खंड के स्वामी भरत नरेंद्र विनीता नगरी के बीच से होकर निकल रहे हैं।
४. अनेक लोग मंगलवाचन करते हुए उनके पीछे चल रहे हैं। अनेक लोग जय-जय शब्द का मुख से उच्चारण कर रहे हैं। उनके हृदय में अपार हर्ष है।
५. दो हजार देवता तो अदृष्ट रूप में सेवक बनकर साथ चल रहे हैं। पुण्य के भरपूर संचय से भरतजी उन देवताओं से घिरे हुए हैं।
६. भरत नरेंद्र वैश्रमण देव की तरह सुशोभित हैं। उनकी ऋद्धि इंद्र के समान है। इस लोक में चारों ओर उसकी यशकीर्ति फैली हुई है। वे बुद्धिमान्, चतुर, सज्जन हैं।
७. गंगा नदी के दक्षिणी किनारे के सभी गांवों-नगरों में सभी जगह सभी राजाओं को नत-मस्तक कर अपना अनुशासन स्थापित किया।
८. सुचारू रूप से सब राजाओं को जीतकर उनके श्रेष्ठ रत्नों का गुरुतर उपहार स्वीकार कर आगे से आगे बढ़ते जा रहे हैं।
९. चक्ररत्न के पीछे-पीछे, एक-एक योजन के अंतराल से, सुखपूर्वक विश्राम लेते हुए सेना के साथ कूच करते हैं।
१०. इस प्रकार चक्ररत्न और सेना के साथ चलते हुए मागध तीर्थ की ओर बढ़ते हुए तीर्थ के न अति दूर और न अति निकट आ पहुंचे।
११. बारह योजन लंबा और नौ योजन चौड़ा विजय कटक का पड़ाव इस तरह होता जैसे कोई मनोरम नगर बस गया हो।
१२. अपने बढ़ईरत्न को बुलाकर यों कहते हैं- हमारे लिए पौषधशाला सहित आज का आवास शीघ्र तैयार करो तथा मेरी आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो।