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स्नातुं गता।
(2) अथ ब्राह्मणाय राज्ञः पार्वणश्राद्धं दातुम् आह्वानम् आगतम् । तत् श्रुत्वा स विप्रः सहजदारिद्रयाद् अचिन्तयत्।
(3) यदि सत्वरं न गच्छामि तदा तत्र अन्यः कश्चित् श्राद्धं गृहीष्यति।
(4) किन्तु बालकस्य अत्र रक्षको नास्ति। तत् किं करोमि ? यातु। चिरकाल-पालितम् इमं नकुलं पुत्रनिर्विशेष बालकरक्षणार्थं व्यावस्थाप्य गच्छामि । तथा कृत्वा गतः।
(5) ततः तेन नकुलेन बालकस्य समीपम् आगच्छन् कृष्णसर्पो दृष्ट्वा व्यापादितः खण्डितः च।
(6) ततः असौ नकुलो ब्राह्मणं आयान्तम् अवलोक्य रक्तविलिप्त मुखपादः सत्वरम् उपगम्य तच्चरणयोः लुलोठ।
रखकर स्नान के लिए चली।
(2) अनन्तर ब्राह्मण के लिए राजा का पार्वणश्राद्ध देने के लिए निमन्त्रण आ गया। यह सुनकर वह ब्राह्मण स्वाभाविक दरिद्रता से सोचने लगा।
(3) अगर शीघ्र नहीं जाता हूं तो वहां दूसरा कोई श्राद्ध ले लेगा।
(4) परन्तु बालक का यहां रक्षण करनेवाला नहीं। तो क्या करूं? जाने दो। बहुत समय से पाले हुए इस पुत्र के समान नेवले को संतान की रक्षा के लिए रखकर जाता हूं। वैसा करके गया।
(5) पश्चात् उस नेवले ने बालक के पास आते हुए काले सांप को देखकर (उसको) मारा और टुकड़े कर दिए।
(6) अनन्तर यह नेवला ब्राह्मण को आते हुए देखकर खून से भरे हुए मुंह और पांव (के साथ) शीघ्र पास जाकर उसके पांव पड़ा।
(7) इसके बाद इस ब्राह्मण ने वैसे उसको देखकर, 'बालक इसने खाया' ऐसा समझकर नेवले को मार दिया।
(8) अनन्तर जब पास जाकर देखता है, तब बालक आराम (में) है और साँप मरा हुआ है।
(9) पश्चात् उस उपकार करने वाले नेवले को देखकर विचारमय होकर बहुत दुःख को प्राप्त हुआ।
(हितोपदेश)
(7) ततः स विप्रः तथाविधं तं दृष्ट्वा बालकोऽनेन खादितः इति अवधार्य नकुलं व्यापादितवान्।
(8) अनन्तरं यावद् उपसृत्य पश्यति तावद् बालकः सुस्थः सर्पः च व्यापादितः तिष्ठति।
(9) ततः तं उपकारकं नकुलं निरीक्ष्य भावितचेता स परं विषादं गतः।
(हितोपदेशात्)
समास-विवरण 1. अविवेकः-न विवेकः अविवेकः। अविचारः। 2. विप्रः-विशेषेण प्राज्ञः विप्रः। विशेषज्ञानयुक्तः।