________________
ब्रिटिश राज के दिनों में और स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रारम्भिक कुछ वर्षों तक भी पीएच.डी. आदि उपाधियों के लिये शोध हेतु पाण्डुलिपि रूप में स्थित किसी ग्रन्थ के आलोचनात्मक भूमिका सहित संस्करण-सम्पादन-कार्य को विषय रूप में तत्तद् विश्व विद्यालयों द्वारा स्वीकृत किया जाता था। केवल स्वीकृत ही नहीं किया जाता था अपितु शोधार्थियों को इस उद्धार का कार्य करने के लिये प्रोत्साहित भी किया जाता था। पर इधर कुछ नई ही हवा बहने लगी है। इस प्रकार के कार्य को शोध ही नहीं माना जाने लगा है। जबकि असली शोध यही है। जो ग्रन्थ प्रकाश में ही नहीं आया, उसका अनेक पाण्डुलिपियों की सहायता से प्रामाणिक पाठ स्थिर करने और उसकी समीक्षात्मक भूमिका लिखने के लिये शोधार्थी को कितना परिश्रम करना पड़ता है और कितनी सूझबूझ उसे इसमें लगानी पड़ती है, यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है। इसलिये आवश्यक है, हवा की दिशा बदली जाए।
प्रो. राजाराम जैन ने महाकवि पुष्पदन्त, विबुध श्रीधर, रइधू आदि अनेक साहित्यकारों का उल्लेख अपनी इस कृति में किया है। उनकी कुछ कृतियाँ तो प्रकाशित हुई हैं, कुछ अभी अप्रकाशित हैं। इस पंक्तियों के लेखक का सुझाव है कि एक-एक साहित्यकार को लेकर उसका समय, वाङ्मय, प्रकाशित अथवा अप्रकाशित, एक स्थान पर ग्रन्थमाला के रूप में प्रकाशित किया जाए। इससे कम से कम उन मनीषियों का, जो भारतीय मनीषा के स्तंभ हैं, वाङ्मय तो प्रकाश में आ जाएगा।
सबसे बड़ी कठिनाई इस समय यह है कि दिशाएँ अनेक हैं, काम करने वाले कम हैं। जैन समाज साधन उपलब्ध कराने के माध्यम से यदि कुछ विद्वानों को इस कार्य के लिये प्रेरित कर सके, तो वह अपने दायित्व का निर्वाह ही करेगा।
___ "जैन पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख" पाण्डुलिपि के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण अवदान है। इसमें अनेक भूली-बिसरी कृतियों की महत्त्वपूर्ण जानकारी है। इस जानकारी को प्रस्तुत कर अपने देश के मूर्घन्य मनीषी पाण्डुलिपि-शास्त्र के अनन्य विद्वान् प्रो. राजाराम जैन ने विद्वत्समाज का जो उपकार किया है, उसे शब्दों की परिधि में समेट पाना सम्भव नहीं।
नई दिल्ली ०३ फरवरी, २००४
सत्यव्रत शास्त्री मानद आचार्य, विशिष्ट संस्कृत अध्ययन केन्द्र जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, पूर्व कुलपति, संस्कृत विश्वविद्यालय,
पुरी (उड़ीसा)