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आक्रामकों ने तो जो किया सो किया ही, हमारी असावधानी, अज्ञानता और उदासीनता भी इस वाङ्मय को सम्यक्, सुरक्षित न रख पाने में कारण बनीं। अन्यथा बोरों में भर कर पाण्डुलिपियों को जलसमाधि देने की कल्पना भी इस देश में नहीं हो सकती थी 1 अनेक बार यह भी देखने में आया है कि लोग अपने घरों में रखी पाण्डुलिपियों को किसी को देना नहीं चाहते, चित्र - प्रतिलिपि बनाने के लिये भी नहीं 1 लाल वस्त्रों में बंधी सामग्री उनके यहाँ पुरखों से चली आ रही है। वह उनके यहाँ पड़ी रहनी चाहिये-यदि वह उनके यहाँ से चली जायेगी तो कहीं उनका कोई अनिष्ट न हो जाए, इसलिये वे उन्हें किसी को देना नहीं चाहते। इसका एक उपाय है कि उनके यहाँ जा-जाकर उनकी पाण्डुलिपियों की चित्र प्रतिलिपि, माइक्रोफिल्म बना ली जाए । विशेषज्ञ आवश्यक साधन-सामग्री के साथ वहाँ जाकर इस कार्य को सम्पन्न करें। नेपाल की पाण्डुलिपियों के विषय में यही पद्धति अपनाई गई । जर्मन-सरकार द्वारा सञ्चालित इस व्यवस्था के अर्न्तगत पाण्डुलिपि की तीन प्रतियाँ बनायी गयी। एक प्रति उस व्यक्ति को दी गई, जिसके यहाँ से पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई, दूसरी बर्लिन (जर्मनी) के ग्रन्थालय में भेज दी गई और तीसरी काठमाण्डू के ग्रन्थालय को अर्पित कर दी गई। इस पद्धति से नेपाल की समस्त पाण्डुलिपियों की माइक्रोफिल्म तैयार की गई । यह पद्धति भारत की पाण्डुलिपियों के विषय में भी अपनाई जा सकती है।
किञ्च, अनेक बार यह तर्क दिया जाता है कि सभी पाण्डुलिपियों की चित्र- प्रतिलिपि बनाने की क्या आवश्यकता है। एक ही ग्रन्थ की अनेक पाण्डुलिपियाँ हो सकती हैं। अतः ग्रन्थ पर बल देना चाहिए, उसकी पाण्डुलिपि पर नहीं । यहाँ यह प्रश्न होगा कि ग्रन्थ के स्वरूप निर्धारण के लिये अनेक पाण्डुलिपियों में किसे ग्रहण किया जाए ? पाठ-योजना के लिये सभी पाण्डुलिपियों का अवलोकन आवश्यक है। उसी के आधार पर ग्रन्थ का प्रामाणिक संस्करण सम्भव है । इस दृष्टि से प्रत्येक पाण्डुलिपि महत्त्वपूर्ण है।
एक समय था, जब भारत में पाण्डुलिपियों की खोज और उनके संग्रह के लिये पाण्डुलिपि-संग्रहकर्ता, शासन की ओर से नियुक्त किये जाते थे। उनके माध्यम से पाण्डुलिपियाँ पाण्डुलिपि संग्रहालयों में सुग्रहीत हुई। उसी तरह की पद्धति वर्तमान- शासन को भी अपनानी चाहिए ।
इन पंक्तियों का लेखक जब उड़ीसा में था, वहाँ के प्रचुर पाण्डुलिपि - वाङ्मय की प्रसिद्धि के कारण पाण्डुलिपियों की खोज की ललक उसके मन में जगी। इसके लिए उसने एक योजना बनाई। जिस विश्व विद्यालय में वह कुलपति था, उसके साथ ६६ विद्यालय-महाविद्यालय सम्बद्ध थे । उसने सोचा कि उन विद्यालयों-महाविद्यालयों के प्राचार्यों से अनुरोध किया जाए कि अपने-अपने क्षेत्रों में जहाँ ये संस्थाएँ हैं, वे पता लगायें कि किन-किन के यहाँ पाण्डुलिपियाँ हैं और इसकी जानकारी वे विश्वविद्यालय को प्रेषित करें। इससे बिना व्यय के या अत्यल्प व्यय से ही अपेक्षित जानकारी प्राप्त हो सकेंगी। इस तरह की पद्धति अन्य विश्व विद्यालयों में भी अपनाई जा सकती है।