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ही मोहित होता है।
व्याख्या- -
अर्थ - जीव पुद्गल वस्तु को स्पर्श करता है, सूंघता है रस लेता है तथा देखता है, इसलिए आत्मस्वरूप को भूलकर मोहि इसमें ही मोहित होता है । -यह जीव अपने ज्ञान गुण से पौगलिक स्थूल वस्तुओं के स्पर्शादि में सुख गुण से सुख-दुःख रूप वेदन करता हुआ, अपने अमूर्तस्वरूप को कुछ नहीं समझता हुआ, अपने से पृथक् बाह्य वस्तुओं में ही मोहित होता हुआ दुःखी होता है। जबकि यह अज्ञानता है । 'सुज्ञानसंपन्नोऽहम् ' ।
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समभाव के बिना सब कुछ निरर्थक
झाणज्झयणं च तहा, वणवासो तवं चाग-उवगारो । जदि णत्थि समभावो, तो सव्वं इच्छुफुल्ल समं ॥44 ॥
अन्वयार्थ – (जदि णत्थि समभावो) यदि समभाव नहीं है (तो) तो (झाणज्झयणं) ध्यानाध्ययन ( वणवासो तवं चाग उवगारो च) वनवास तप त्याग व उपकार (सव्वं इच्छुफुल्ल समं) सब ईख के फूल के समान है।
अर्थ - यदि समभाव नहीं है तो ध्यान - अध्ययन, वनवास, तप-त्याग तथा उपकार आदि सब कुछ ईख के फूल के समान है ।
व्याख्या– वस्तु स्वभाव को समझे बिना सम्यक् समता नहीं आ सकती है। समताभाव के बिना ध्यान- अध्ययन, वनवास, तप त्याग तथा उपकार आदि सब कुछ उसी प्रकार निरर्थक है, जिस प्रकार ईख (गन्ने) का फूल। फूल तो होता है पर काम कुछ भी नहीं आता । 'सार्थकोऽहम्' ।
कैसा समभावी निर्वाण पाता है।
सत्तुं मित्तं च तहा, वणं च भवणं च जीविदं मरणं । कणयं लोट्टं च समं, जो जाणेदि सो य णिव्वादि ॥45 ॥
अन्वयार्थ - ( सत्तुं मित्तं च ) शत्रु और मित्र को (वणं च भवणं) वन और भवन को ( जीविदं च मरणं) जीवन और मरण को (तहा) तथा (कणयं च लोट्ठ) सोना और पत्थर को (जो) जो ( समं जाणेदि) समान जानता है (सो य णिव्वादि) वह ही निर्वाण पाता है ।
अर्थ - जो शत्रु और मित्र को, वन और भवन को, जीवन और मरण को, कनक और पत्थर को समान जानता है, वह ही निर्वाण पाता है ।
व्याख्या - वस्तु-स्वभाव का सम्यक् बोध होने से जिसे सम्यक् चारित्र प्रगट हुआ है, ऐसा महान योगी प्रत्येक परिस्थिति में स्थिरता धारण करता है और वह ही निर्वाण का भागी होता है । इस प्रकार की गाथा प्रवचनसार में आई है
अज्झप्पसारो :: 273