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अर्थात् सूक्ष्मनिगोदिया अपर्याप्तक जीव को उत्पत्ति के प्रथम समय में नित्योद्घाटित निरावरण सबसे कम ज्ञान होता है।
यदि कभी किसी जीव के ज्ञान का अभाव मान लिया जाए तो जीव का भी अभाव मानना पड़ेगा। अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार कलश में कहा है
जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं, ज्ञानी जनोऽनुभवती स्वयमुल्लसन्तम्। अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृभतोऽयं, मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति॥
अर्थात् जीव और अजीव लक्षण से विभिन्न हैं, ऐसा ज्ञानीजन अतंरंग में उल्लसित होते हुए अनुभव करते हैं, बड़े आश्चर्य की बात है कि अज्ञानी अर्मादित मोह के वश संसार में ही नृत्य करते हैं।
जीव अपने ज्ञान से पदार्थों को जानता है। ज्ञानी ज्ञान व ज्ञेय को पृथक् मानने से आत्मानुभव करते हैं, जबकि अज्ञानी ज्ञान और ज्ञेय में एकत्वकर मोहवश दुःखी होते हैं। 'भेदविज्ञानसंपन्नोऽहम्'।
ज्ञानी आत्मानुव कर मोक्ष पाते हैं णाणी करेंति णिच्चं, णाणसरूवस्स सुहरसं पाणं।
स-पर-भेद-णाणेण य सिग्धं पावेंति णिव्वाणं ॥2॥ अन्वयार्थ-(णाणी) ज्ञानी (णिच्चं) नित्य (णाणसरूवस्स सुहरसं पाणं) ज्ञानस्वरूप सुखरस का पान (करेंति) करते हैं (य) तथा (स-पर-भेद-णाणेण) स्वपर भेद विज्ञान से (सिग्घं) शीघ्र (णिव्वाणं) निर्वाण (पावेंति) पाते हैं।
अर्थ-ज्ञानीजन नित्य ही ज्ञानस्वरूप निजसुखरस पान करते हैं तथा स्व-पर भेदज्ञान की दृढ़ता से शीघ्र निर्वाण पाते हैं।
व्याख्या-ज्ञान जीव का स्वभाव है। ज्ञेयों को जानना ज्ञान का स्वभाव है, किन्तु ज्ञेयों में एकत्व करना यह मोह का कार्य है। जब जीव मोह व ज्ञान को पृथक् पृथक् अनुभव करता है, तब अपने ज्ञानमय सुख स्वभाव में लीन होता हुआ स्व-पर भेद विज्ञान की दृढ़ता से थोड़े समय में ही मोक्ष पा लेता है। 'ज्ञायकस्वरूपोऽहम्'।
मोही मोहित होते हैं जीवो पुग्गलवत्थु, फासदि जिग्घदि रसेदि पस्सदि य। मोही मुज्झदि अस्सिं, अप्पसरूवं च विसरित्ता॥43 ॥
अन्वयार्थ-(जीवो) जीव (पुग्गलवत्) पुद्गलवस्तु को (फासदि जिग्यदि रसेदि पस्सदि य) स्पर्श करता है, सूंघता है, रस लेता है, व देखता है (मोहि) मोहि (अप्पसरूवं विसरित्ता) स्वकीय आत्मस्वरूप को भूलकर (अस्सिं मुज्झदि) इसमें 272 :: सुनील प्राकृत समग्र