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ही ( बंधुभावो) बंधुभाव है ( पच्छा) पश्चात ( को बंधू किं मित्तं) कौन बंधु है ? कौन मित्र है ?
अर्थ - जब तक अप्रतिकूलता है तथा बहुत प्रकार के विविध कार्य सिद्ध होते हैं, तब तक ही बंधुभाव है, अन्यथा कौन किसका बंधु या मित्र है ?
व्याख्या - जब तक आपस में किसी प्रकार की प्रतिकूलता नहीं होती है अर्थात् सब प्रकार से मन मिलता है अथवा जब तक बहुत प्रकार के विविध कार्य सिद्ध होते हैं, तब तक ही बंधुभाव अर्थात कौटुंबिक सम्बन्ध तथा मित्रभाव होता है । अन्यथा कौन किसका बंधु है और कौन किसका मित्र ? धन नहीं कमाने वाले बेटे को माँ-बाप भी स्नेह नहीं करते अन्य सम्बन्धों का तो कहना ही क्या ? संसार के सारे सम्बंध स्वार्थ के कंधों पर चलते हैं । इसलिए संसार के सम्बन्धों में मत उलझो। आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में कहा है
संजोग मूलं जीवेण, पत्तं णंत परंपरं । तम्हा संयोग सम्बन्धं, सव्वं तिविहेण वोसरे ॥49 ॥
अर्थात् संयोग-सम्बन्ध दुःख के मूल हेतु हैं, संसार की अनंत परंपरा को करने वाले हैं, इसलिए संयोग सम्बन्धों को मन-वचन-काय से छोड़ो । एकत्व - विभक्त निज आत्मा का चिंतन करो । 'संयोग सम्बन्ध शून्योऽहम् ।'
आयु व देह निरंतर क्षीण हो रही है
हायदि आऊ णिच्चं, छिज्जदि देहो य इंदिया णिच्चं ।
मोही दु हवदि मूढो, णाणी णाणेण सिज्झेदि ॥26॥
अन्वयार्थ – (आऊ णिच्चं ) आयु निरंतर ( हायदि) कम होती है ( देहो य इंदिया) देह व इन्द्रियाँ (णिच्च) निरंतर (छिज्जदि) क्षीण होती हैं, [ ऐसे में ] ( मूढो) मूढ (मोही हवदि) मोही होता है (दु) जबकि ( णाणी णाणेण सिज्झदि) ज्ञानी ज्ञानसे सिद्ध होता है।
अर्थ - आयु निरंतर कम होती जा रही है, देह व इन्द्रियाँ निरंतर क्षीण होती जा रहीं हैं। ऐसे में मोही मूढ़ होता है, जबकि ज्ञानी ज्ञानसे सिद्ध होता है।
व्याख्या - आयुकर्म के उदय से इस देह धारी को जितनी आयु प्राप्त हुई है, वह निरंतर कम होती जा रही है । शरीर व इन्द्रियाँ भी एक अवस्था तक पुष्ट होती हैं, फिर वे भी क्षीण होने लगती हैं। आत्मा तो वह का वही रहता है। ऐसे में अज्ञानी मोही प्राणी मूढ़ बना रहता है अर्थात् कुछ भी आत्महित का विचार नहीं करता; जबकि ज्ञानीजन निज ज्ञान से मोक्ष की साधना कर सिद्ध तक हो जाते हैं । 'इन्द्रियायुरहित ज्ञानस्वरूपोऽहम् ।'
अज्झप्पसारो :: 263