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________________ अन्वयार्थ-(जिणदेवो) जिनदेव (परदेवो) परदेव हैं (णियअप्पा णिच्छएण णियदेवो) निज आत्मा निश्चय से निजदेव हैं [इसलिए] (जिणिंदाणं झाऊण) जिनेन्द्रों का ध्यान करके (अप्पा अप्पम्मि थिरो होदु) आत्मा से आत्मा में स्थिर होओ। अर्थ-निजात्मद्रव्य की अपेक्षा वीतरागी जिनदेव भी पर-देव हैं, वस्तुतः निजात्मा ही निजदेव है, इसलिए जिनेन्द्र भगवन्तों का ध्यान करके निज आत्मा से निजात्मा में ही स्थिर होओ। व्याख्या-सम्पूर्ण जगत में मुख्यतः छह द्रव्य हैं-1. जीव, 2. पुद्गल, 3.धर्म, 4. अधर्म. 5. आकाश, 6. काल। जीव के अलावा शेष द्रव्य अजीव (अचेतन) हैं। जीव द्रव्य चैतन्यगुण युक्त असंख्यात प्रदेशी है, अनंतानंत जीव इस लोक में हैं, प्रत्येक जीव की पृथक्-पृथक् सत्ता है। पुद्गल द्रव्य पूरण-गलन स्वभाव वाला अथवा स्पर्श रस गंध व वर्ण गुण से युक्त, अचेतन, उदासीन, संख्यात-असंख्यातअनंत प्रदेशी क्रियावान द्रव्य है। धर्मद्रव्य जीव-पुद्गल के गमन में उपकारक, अचेतन, उदासीन, असंख्यात प्रदेशी द्रव्य है। आकाश द्रव्य समस्त द्रव्यों को अवगाह देने वाला अनंत (लोकापेक्षा असंख्यात) प्रदेशी, अचेतन, उदासीन एक द्रव्य है। कालद्रव्य सभी द्रव्यों की वर्तना में उपकारक अचेतन, उदासीन, एक प्रदेशी (अप्रदेशी) द्रव्य है। इन छहों द्रव्यों की स्वतंत्र-स्वतंत्र सत्ता है। ये एक-दूसरे का उपकार करते हुए भी एकमेक नहीं होते। धर्म, अधर्म तथा आकाश ये अविभागी एक-एक द्रव्य हैं; काल अनंत समय रूप अप्रदेशी द्रव्य है; पुद्गल एक प्रदेशी, विप्रदेशी आदि संख्यात, असंख्यात, अनंत तथा अनंतानंत प्रदेशी रूप है; जीव अनंतानंत हैं। प्रत्येक जीव ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुणों से युक्त स्वतंत्र सत्ता वाला क्रियावान चैतन्य द्रव्य है। जो जीव अपने पुरुषार्थ से कर्ममल से रहित शुद्ध हो गए हैं, वे अरहंत-सिद्ध शुद्ध हैं, शेष अशुद्ध जीव हैं। यह संसारी साधारण जीव ही जिनेन्द्र-रूप श्रेष्ठ शुद्धदशा को प्राप्त करता है। अब तक जो जिनदेव हो गए, वे इस आराधक जीव की अपेक्षा से तो अन्य ही हैं। यह स्वयं ही उन जैसे स्वरूप को उपलब्ध कर सकने की संभावना वाला होने से स्वयं के लिए निजदेव है। अतः बाह्य में जिनेन्द्र के स्वरूप को जानकर, ध्यानकर निजस्वरूप में ही लीन होना चाहिए। 'आत्मदेवोऽहम्।' सम्यग्दर्शन का लक्षण अप्पस्स य सद्दहणं, तच्चस्स य देव गुरु सु-सत्थाणं। पंचत्थिकायाणं, छ दव्वाणं च अस्थि सम्मत्तं ॥3॥ 248 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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