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॥ णमोत्थु वीदरायाणं॥ अज्झप्पसारो (अध्यात्मसार) मंगलाचरण
झाणेण जिणिंदाणं, अप्पसरूवस्स होदि सण्णाणं।
जिणो वणिय-विहवत्थं, णमो जिणाणं' तिजोगेणं ॥
अन्वयार्थ-(जिणिंदाणं) जिनेन्द्र भगवंतों के (झाणेण) ध्यान से (अप्पसरूवस्स) आत्मस्वरूप का (सण्णाणं) सम्यग्ज्ञान (होदि) होता है, [इसलिए] (जिणो व णियविहवत्थं) जिनेन्द्र के समान निज वैभव के लिए (तिजोगेणं) तीनों योगों से (जिणाणं) जिनों को (णमो) नमस्कार हो।
____ अर्थ-श्री जिनेन्द्र भगवंतों का ध्यान करने से निज-आत्मस्वरूप का भान होता है, इसलिए जिनेन्द्र भगवान के समान निज वैभव की प्राप्ति के लिए मन, वचन, काय रूप तीनों योगों से जिनेन्द्र भगवंतों को नमस्कार हो।
व्याख्या-जिन्होंने इन्द्रियों व कषायों को जीता है तथा जन्म-मरण आदि अठारह दोषों से रहित हैं वे जिन कहलाते हैं। जिनों में भी जो प्रमुख हैं ऐसे तीर्थंकर देव जिनेन्द्र कहलाते हैं अथवा विषय-कषायों पर विजय करने वाले मुनियों में जो प्रमुख हैं ऐसे अरिहंत जिनेन्द्र कहलाते हैं। ऐसे जिनेन्द्रों का ध्यान करने से निजात्मस्वरूप का भलीभांति बोध होता है, जैसा कि प्रवचनसार ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है
जो जाणदि अरिहंतं दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्सलयं ॥४०॥ अर्थात् जो द्रव्य, गुण, पर्यायों सहित अरिहंत भगवान को जानता है वह अपने आत्मस्वरूप को भी जानता है, इस कारण उसका मोह विलय को प्राप्त हो जाता है।
इसलिए निज-आत्मा के अनंतगुणरूपी वैभव की उपलब्धि के लिए मैं मनवचन-कायरूप तीनों योगों को एकाग्रकर जिनेन्द्र भगवंतोंको नमस्कार करता हूँ। 'मंगलस्वरूपोऽहम्।'
ग्रन्थ रचना का उद्देश्य जिणदेवो परदेवो, णियअप्पा णिच्छएण णियदेवो। झाऊण जिणिंदे य, अप्पा अप्पम्मि थिरो होदु ॥2॥
अज्झप्पसारो :: 247