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'वत्थु सहावो धम्मो' अर्थात् वस्तु का सत्स्वभाव ही धर्म है, किन्तु उसमें भ्रांति करना असत्यता है, अधर्म है। जो वस्तु जैसी है, उसे वैसा कहना यह व्यवहार सत्य के बिना लोक व्यवहार भी नहीं चलता है। विद्यमान वस्तु को अविद्यमान व अवधिज्ञान वस्तु को विद्यमान, कुछ को कुछ कहना तथा अरति, भीति, खेद, शोक, बैर तथा कलहकारी वचनों का बोलना असत्य की श्रेणी में आता है।
भरतचक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीर्ति के वंशज राजा हरिश्चन्द्र सत्य-वादियों में प्रसिद्ध हुए हैं, जबकि जीवन में सिर्फ एक कपटपूर्ण शब्द बोलने से युधिष्ठिर के सत्य पर दाग लग गया। वसु राजा एक झूठ बोलकर नरक गया। वस्तुतः सत्य से श्रेष्ठ कोई पद नहीं है। 'सत्यस्वरूपोऽहम् ।'
संयम धर्म संजमादो विहीणो जो, पसुरूवो ण संसओ।
सेयासेयं ण जाणादि, भेओ तेसु कधं हवे॥59॥ अन्वयार्थ-(जो) जो मनुष्य (संजमादो विहीणो) संयम से विहीन है [वह] (पसुरूवो) पशु-रूप है [इसमें] (संसओ ण) संशय नहीं है क्योंकि (सेयासेयं) श्रेय-अश्रेय को (ण जाणादि) नहीं जानता है [तब] (तेसु) उनमें (भेओ कधं हवे) भेद कैसे होता है।
अर्थ-जो मनुष्य संयम से विहीन है, वह पशुरूप है, इसमें संशय नहीं है। क्योंकि श्रेय-अश्रेय [उचित-अनुचित] को नहीं जानता है, तो उनमें भेद कैसे होता
व्याख्या-'सम्यक् -रूपेण यमो संयमः' अर्थात् सम्यक् प्रकार से नियंत्रण, उपरम होना संयम है। किससे उपरमित होना? आचार्यों ने संयम के दो भेद कहे हैं1. इन्द्रिय संयम और 2. प्राणी संयम। पाँच इन्द्रिय और मन को संयमित रखना इन्द्रिय संयम कहलाता है। स्थावर पाँच तथा त्रस एक, ऐसे छह निकाय के जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है। यह व्यवहार संयम है, इसके माध्यम से जो आत्मस्थिरता होती है, वह निश्चय संयम है। संयम मनुष्य ही धारण कर सकते है, अन्य नहीं। आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकांड (465) में कहा है
वद समिदि कसायाणं, दंडाणं तहिंदियाण पंचण्हं।
धारण पालण णिग्गह, चाग जओ संजमो भणिदो॥ अर्थात् व्रतों का धारण, समितियों का पालन, कषायों का निग्रह, त्रयदंडों का त्याग तथा पंचेन्द्रियों पर विजय करना संयम कहा गया है।
उन्होंने (गो.जी.गा.149) में कहा है कि जो मनन करता है, मन से निपुण है
भावणासारो :: 235