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शौच-धर्म धोदि लोह-मलं पुंज, सु-संतोस-जलेण जो।
भोयणे वि अगिद्धीए, सउचं तस्स णिम्मलो॥57॥ अन्वयार्थ-[जो] (सु-संतोस जलेण) सम्यक् संतोषरूपी जल से (लोहमलं पुंज) लोभमल समूह को (धोदि) धोता है (च) और (भोयणे वि) भोजन में भी (अगिद्धीए) अगृद्धिवान है (तस्स) उसके (णिम्मलो) निर्मल (सउचं) शौचधर्म होता है।
अर्थ-जो निर्मल संतोषरूपी जल से लोभमल के समूह को धोता है तथा भोजन में भी आसक्ति नहीं रखता उसके निर्मल शौच धर्म होता है।
व्याख्या-लोभ कषाय के अभाव अथवा मंदता में शौच धर्म होता है। 'शुचि से भाववाच्य में शौच शब्द बनता है। इसका अर्थ है पवित्रता। जैसे लोभ को मल कहा है वैसे ही शुचिता को निर्मलता कहा है।
यदि वस्तुतत्त्व का बोध नहीं है, तो भिखारी भी लोभी (परिग्रही) है और यदि सम्यक्बोध है तो चकवर्ती भी निर्लोभी (अपरिग्रही) है। वस्तुओं को चाहना ही लोभ है। इस शरीर में ममत्वबुद्धि रखना भी लोभ है। क्योंकि इस पुद्गल द्रव्य की संरचना में तुम अपनत्व मान रहे हो। अतः इच्छाओं को रोकना चाहिए। सूत्रपाहुड में कहा है___इच्छा जाहु णियत्ता, ताह णियत्ताइं सव्व दुक्खाइं' जिसने इच्छाओं को नियंत्रित किया, उसने सभी दुःखों को नियंत्रित कर लिया। 'परमपवित्रोऽहम्' 157॥
सत्य धर्म सच्चमेव वरं लोगे, सच्चं लोगेसु पुज्जदे।
सच्चं धम्मस्स मूलं च, सच्चादो ण वरं पदं॥58॥ अन्वयार्थ-(लोगे) लोक में (सच्चमेव) सत्य ही (वरं) श्रेष्ठ है (लोगेसु) लोक में (सच्चं) सत्य (पुज्जदे) पूजा जाता है (सच्चं धम्मस्स मूलं) धर्म का मूल सत्य है (च) और (सच्चदो ण वरं पदं) सत्य से श्रेष्ठ कोई पद नहीं है।
अर्थ-लोक में सत्य ही श्रेष्ठ है, लोक में सत्य पूजा जाता है, धर्म का मूल सत्य है और सत्य से श्रेष्ठ कोई पद नहीं है। __ व्याख्या-'सत्यमेव जयते' अंततः सत्य ही जयवंत होता है। लोक में सत्य पूजा जाता है, सत्यवादी का विश्वास किया जाता है। धर्म सत्य बिना नहीं चल सकता है। धर्म की जड़ सत्य है अथवा सत्स्वरूप वस्तु ही धर्मी अर्थात् गुणवान है, असत् स्वरूप वस्तु है ही नहीं।
234 :: सुनील प्राकृत समग्र