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का पालन करते हुए आत्मस्थिरता रूप चारित्र को बढ़ाते हैं । वे पर से निरपेक्ष हो शुभोपयोग की दशा में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रिय निरोध, षडावश्यक तथा सप्त विशेष गुणों का परिपालन करते हैं तथा क्षण- क्षण में शुद्धोपयोग में जाकर आत्मानुभव करते हैं । यह आत्मानुभूति ही सच्चा धर्म है । 'आत्मानुभव धर्मस्वरूपोऽहम्' ॥49 ॥
असंयम से दुःख व संयम से सुख
चत्ता असंजमं सव्वं, संजमे हि पवट्टणं । एगेण दुक्खसंसारी, अण्णेण सग्ग- मोक्खो य ॥50॥
अन्वयार्थ - (सव्वं ) सब (असंजमं) असंयम को ( चत्ता) छोड़कर (हि) निश्चय से (संजमे) संयम में (पवट्टणं) प्रवर्तन करना चाहिए [ क्योंकि ] ( एगेण) एक से (दुक्खसंसारो) संसार में दुःख (य) और ( अण्णेण सग्ग- मोक्खो ) एक से स्वर्ग व मोक्ष होता है।
अर्थ- सभी प्रकार के असंयम को छोड़कर निश्चय से संयम में ही प्रवर्तन करना चाहिए, क्योंकि एक असंयम से संसार में दुःख और एक संयम से स्वर्ग तथा मोक्ष मिलता है।
व्याख्या - श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर स्वामी ने प्रतिक्रमणसूत्र में कहा है
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धम्मो मंगल - मुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तस्स पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥
अर्थात् अहिंसा, संयम व तप रूपी धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। जिसके मन में धर्म सदा रहता है, उसे देव भी प्रणाम करते हैं ।
जैनशासन में सम्यक्त्व सहित संयम को पूज्य कहा है। असंयमी कितना ही प्रभावशाली हो उसे पूज्य नहीं कहा। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में देखिए
असंजदं ण वंदे, वत्थविहीणो वि तो ण वंदिज्ज । दोणि वि होंति समाणा, एगो वि ण संजदो होदि ॥ 26 ॥
वि देहो वंदिज्जइ, ण वि कुलो णवि जादि संजुत्तो ।
को वंदमि गुण हीणो ण हु सवणो णेव सावगो होदि ॥ दं. पा. 27 ॥
अर्थात् असंयमी को वन्दना नहीं करना चाहिए, वस्त्रविहीन है किन्तु असंयमी
है तो भी वन्दना नहीं करना चाहिए; क्योंकि वे दोनों ही समान हैं, एक भी संयमी नहीं हैं। देह की वन्दना नहीं की जाती, न ही कुल या जाति की; बताओ गुणहीन की वन्दना कौन करता है? क्योंकि गुणहीन न तो श्रमण ही है और न ही श्रावक ।
228 :: सुनील प्राकृत समग्र