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यह कोई बहुत दुर्लभ उपलब्धि नहीं है। क्योंकि इस जीव ने अनेक बार राजा, देव आदि की विस्तृत संपदा को प्राप्त किया है, किन्तु उससे इसका कुछ भी हित नहीं हुआ। अंतत: सब पर-पदार्थ, औपाधिकभाव छूटते ही हैं। अतः एक रत्नत्रयात्मक बोधि तथा मोक्षदायक आत्मानुभूति रूप धर्म ही दुर्लभ है। 'बोधि-मोक्ष प्रदायकधर्मस्वरूपोऽहं।'
धर्म दो प्रकार का है सो धम्मो दुविहो यो, सायारो अणयारो य।
अणुव्वद-महव्वदो, जुत्तो कमेण भासिदो॥49॥ अन्वयार्थ-(सो धम्मो दुविहो णेयो) वह धर्म दो प्रकार जानो (सायारो) सागार (य) और (अणयारो) अनगार [वे] (कमेण) क्रम से (अणुव्वद-महव्वदो, जुत्तो) अणुव्रत-महाव्रत युक्त (भासिदो) कहे गए हैं।
अर्थ-वह धर्म दो प्रकार जानो, सागार और अनगार। वे क्रम से अणुव्रत तथा महाव्रत युक्त कहे गए हैं।
व्याख्या- भगवान महावीर ने मोक्षसाधना हेतु दो प्रकार की व्यवस्था कही है। उसमें अत्यन्त धैर्यशाली, परिपक्व वैराग्यवान, भेदविज्ञानी जीवों को मुनि अवस्था में पालन करने के लिए पाँच महाव्रतों का तथा हीनसत्व, सामान्यज्ञानी किन्तु मोक्षमार्ग इच्छा रखने वाले गृहस्थ साधकों को पंचाणुव्रतों का उपदेश दिया है। इस विषय को सर्वज्ञवाणी के संवाहक आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने चारित्र पाहुड में इस प्रकार कहा
है
दुविहं संजम-चरणं, सायारं तह हवे णिरायारं।
सायारंसग्गंथं, परि-गह-रहियं खलुणिरायारं ॥21॥ अर्थात् सागार और अनगार के भेद से संयमाचरण चारित्र दो प्रकार का है। अहिंसादि पंचाणुव्रतों का पालन करने वाला सागार परिग्रह सहित होता है। जबकि महाव्रतों का पालन करने वाला परिग्रह रहित होता है।
'वत्थु सहावो धम्मो' वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते है। वस्तुतः वस्तुस्वभावत्मक धर्म के दो भेद नहीं हैं, अपितु उसके साधनभूत व्यवहार धर्म के दो भेद कहे गए हैं। सागार अर्थात् घर में रहने वाला गृहस्थ पंचाणुव्रत तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत रूप बारह व्रतों का पालन करता हुआ आत्मस्थिरता को वृद्धिंगत करता है और क्रमसे व्रतों को बढ़ाता हुआ मोक्ष के साक्षात् कारणभूत महाव्रतों को धारण करता है।
अनगार अर्थात् घर आदि से रहित महाव्रती मुनि। मुनिराज अट्ठाईस मूलगुणों
भावणासारो :: 227