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जो इस लोक में निरपेक्ष, परलोक में अप्रतिबद्ध, युक्ताहार-विहार वाला तथा कषायों से रहित है, वह श्रमण है।
युक्त अर्थात् प्रयत्नरत अथवा योगरत। युक्त का आहार युक्ताहार तथा युक्त का गमन युक्तविहार है। इस तरह प्रयत्न पूर्वक आगमानुसार आहार-विहार करने वाले, कर्तव्यों का यथायोग्य पालन करने वाले तथा योग्य निद्रा लेकर सदा जागृत रहने वाले श्रमण की साधना, योगी का योग समस्त दु:खों को नाश करने वाला होता है। 'शुद्धोपयोग-युक्तोऽहम्' ॥34॥
कर्म कैसे नष्ट होते है सुदज्झाणं च साहूसु, विप्फुरदि जहा-जहा।
तहा-तहा विणस्सेदि, कम्मट्ठ-पुंज णिच्चयं ॥35॥ अन्वयार्थ-(सुदज्झाणं च साहूसु) साधुओं में श्रुत व ध्यान (जहा-जहा) जैसे-जैसे (विप्फुरदि) स्फुरित होता है, (तहा-तहा) वैसे-वैसे (कम्मट्ठ-पुंज) आठ कर्मों का समूह (णिच्चयं) निश्चित ही (विणस्सेदि) विनाश को प्राप्त हो जाता है।
अर्थ-साधुजनों में जैसे-जैसे श्रुतज्ञान और ध्यान स्फुरित होता है, वैसे-वैसे आठ कर्मों का समूह निश्चित ही विनाश को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-आत्मस्वरूप की आराधना करने वाले मुनिराजों में ज्यों-ज्यों श्रुतज्ञान बढ़ता है, त्यों-त्यों भेद-भावना में विशेषता आती है। प्रायः सर्वज्ञदेव की वाणी से आए हुए शास्त्रज्ञान को श्रुतज्ञान कहा जाता है, किन्तु यहाँ अभिप्राय उस श्रुत की भाव-भासना से भी है। क्योंकि यदि भाव-भासना सहित ज्ञान है, तो अष्टप्रवचन मातृका के ज्ञान वाला साधु भी केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है। जबकि भाव-भासना से रहित ग्यारह अंग नौ पूर्व का ज्ञान भी केवलज्ञान प्राप्त नहीं करा सकता।
जैसे-जैसे श्रुतज्ञान की भावना बढ़ती है, वैसे-वैसे ध्यान में स्थिरता आती है, आत्म-संवेदन स्फुरित होता है। जैसे-जैसे आत्म-संवेदन की काल-मर्यादा बढ़ती है, वैसे-वैसे ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र व अंतराय ये आठ कर्म प्रभेद सहित विनाश को प्राप्त होते जाते हैं । ' श्रुतध्यानसहितोऽहम्' ॥35॥
लोक भावना रज्जू चोद्दस उत्तुंगो, पुरिसायार-सुट्ठिदो।
अणाहि-णिहणो लोगो, छ दव्वेहिं च संजुदो॥36॥ अन्वयार्थ-(चोद्दस रजू उत्तुंगो) चौदह राजू ऊँचा (पुरिसायार-सुट्टिदो) पुरुषाकार रूप से सुस्थित (अणाहि-णिहणो) अनादि-निधन (च) और (छ दव्वेहिं)
भावणासारो :: 215