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व्याख्या-मूलतः निर्जरा का अधिकारी कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में यहाँ कुछ विशेषण देते हुए कहा है कि इन विशेषणों से युक्त साधु निर्जरा करता है।
कुटुंब-परिवार आदि सम्बन्धों से रहित, चतुर्विध संघ के बीच में रहता हुआ भी निरंतर एकत्व-विभक्त निजात्मा का अवलंबन लेने वाला सम्यग्दृष्टि साधु एकाकी है। निस्पृह-धन-धान्यादि, वस्त्र-गृहादि, शिष्य-भक्तादि, ख्याति-पूजादि की स्पृहा (इच्छा) से रहित। शांत-विषय कषायों से रहित अत्यन्त शांत । पाणिपात्रीसमस्त भाजनों (पात्रों) का त्यागकर हस्तपुट (अंजुलि) में एक बार दिन में खड़े होकर व्यवस्थित रीति से आहार करने वाला।
समस्त परिग्रहों का त्यागी होने से जिसने सभी प्रकार के वस्त्रों का भी त्याग कर दिया है अथवा दिशाएँ ही जिसके वस्त्र हैं, ऐसे यथाजात बालक सदृश साधु दिगम्बर हैं। ये केशलोंच, अस्नान तथा अहिंसादि महाव्रतों से संयुक्त होते हैं। ऐसे वीतरागी संतों की वेद-पुराण तथा गीता-कुरान में भी प्रशंसा की गयी है।
जो निस्परिगृही होता है, वही सच्चे ध्यान-अध्ययन से संपन्न हो सकता है। परिग्रही को ध्यान की विशेषता संभव नहीं है। ध्यान-अध्ययन को आचार्य कुन्दकुन्द देव ने साधु का विशेष गुण कहा है। इन गुणों से युक्त साधु ही वस्तुतः कर्मों की निर्जरा करता है, अन्य नहीं। कर्म-निर्जरार्थी को इन गुणों की प्राप्ति, वृद्धि व स्थिरता का अभिलाषी होना ही चाहिए। 'एकाकी-निस्पृह-शांत-शुद्धात्म-ध्यान संपन्नोऽहम्' ॥33॥
दुःखों का नाश कौन करता है? जुत्ताहार-विहारस्स, जुत्तचेट्ठस्स कम्मसु।
जुत्तणिद्दाव-बोहस्स, जोगो होदि दुहंतगो॥4॥ अन्वयार्थ-(जुत्ताहार-विहारस्स) युक्ताहार विहार वाले का (जुत्तचेट्ठस्स कम्मसु) कार्यों में योग्य चेष्टा करने वाले का (जुत्तणिद्दाव-बोहस्स) योग्य निद्रा व जागने वाले का (जोगो) योग (दुहंतगो) दु:खों का नाशक (होदि) होता है।
अर्थ-युक्ताहार विहार वाले का, कर्तव्यों में योग्य चेष्टा करने वाले का योग्य निद्रा व जागने वाले का योग दु:खों का नाशक होता है।
व्याख्या-आकुलता ही दुःख है। यदि युक्ताहार-विहार, कर्तव्यों का पालन, निद्रा व जागरण नहीं किया जाता है, तो आकुलता की संभावना रहती है और आकुलता ही दुःख है। प्रवचनसार में कहा है
इह लोग णिरावेक्खो, अप्पडिबद्धो परम्मि लोगम्मि। जुत्ताहार-विहारो, रहिदकसाओ हवे समणो॥226॥
214 :: सुनील प्राकृत समग्र