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मुनियों का प्राण कहा गया है। ध्यान और विज्ञान बिना एक श्रेष्ठ साधु की कल्पना ही नहीं की जा सकती। आचार्य समंतभद्र ने भी साधु में ये गुण अनिवार्य माने हैं, यथा
विषयाशावशातीतो, निरारंभो-परिग्रहाः।
ज्ञान-ध्यान तपो रक्तः, तपस्वी स प्रशस्यते॥1॥ अर्थात् जो विषय व आशा के वश में नहीं है, निरारम्भ व निस्परिगृही है, ज्ञान-ध्यान व तप में लीन है, वह तपस्वी सुशोभित होता है।
यहाँ ज्ञान-ध्यान मुख्य गुण हैं, शेष उसके साधक हैं। विषय व आशावान तथा आरंभी-परिग्रही साधक सच्चे ज्ञान व ध्यान की साधना नहीं कर सकता। ध्यान के विषय में एक सुप्रसिद्ध श्लोक है
वैराग्यं तत्त्व-विज्ञानं, नैर्ग्रथ्यं वशचित्तता।
परिषहजयश्चेति, पंचैते ध्यान हेतवाः॥ अर्थात वैराग्य, तत्त्वविज्ञान, निग्रंथता, पंचेन्द्रियों व मन का वश में होना तथा परिषहजय करना, ये पाँच ध्यान के साधन हैं। ज्ञानकी एकाग्रता ही ध्यान है
ध्यानी ही आत्म-संतुष्ट हो सकता है। आत्मसंतुष्ट ही आत्मस्थ हो सकता है और आत्मस्थ ही वीतरागी हो सकता है। तथा जो वीतरागी है, वही पत्थर और स्वर्ण को समान समझ सकता है। साम्यभाव के सम्बन्ध में प्रवचनसार (241) में लिखा है
सम सत्तु-बंधुवग्गो, सम सुह-दुक्खो पसंस णिंद समो। सम लोट्ठ कंचणे पुण, जीविद-मरणे समो समणो॥241॥
अर्थात् जो शत्रु व वंधुवर्ग में, सुख-दुख में, प्रशंसा-निंदा में, पत्थर व स्वर्ण में तथा जीवन व मरण में समभावी रहता है, वह श्रमण है।
उपरोक्त लक्षणों वाले योगी संसार में रहते हुए भी मुक्त के समान कहे गए हैं। ऐसे पापास्रव से रहित मुनियों को ध्यान भावना निरंतर रहती है। पापवृत्ति वालों के लिए तो ध्यान की वार्ता भी नहीं है। यथा
सर्वपापास्रवे क्षीणे, ध्याने भवति भावना।
पापोपहतवृत्तीनां, ध्यानवार्ता पि दुर्लभाः॥ __मिथ्यात्व, अविरति, कषाय तथा रस-ऋद्धि व सात गारव सहित पुरुषों को ध्यान नहीं होता। ध्यानी तो नित्य ही 'जल से भिन्न कमल' की भांति, अपने
भावणासारो :: 209