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लाभ नहीं, जबकि चिंतन से आत्मोपलब्धि जैसा महान लाभ होता है। अतः विषयों की इच्छा से इन्द्रिय समूह को रोककर आत्मकल्याण में लगना चाहिए। अपने अमूर्तिक,निरंजन, चैतन्यघन आत्मा का लक्ष्य बनाकर निरंतर आत्मानुभव करना चाहिए। 'संकल्प-विकल्प शून्योऽहम् ॥26॥
संवर का स्वामी जोगजुत्तो विसुद्धप्पा, सण्णाणी विजितिंदिओ।
सव्वभूदप्प-भूदव्व, मण्णंतो वि ण बज्झदे ॥27॥ अन्वयार्थ-(जोगजुत्तो) योगयुक्त (विसुद्धप्पा) विशुद्धात्मा (सण्णाणी) सम्यग्ज्ञानी (विजितिंदिओ) जितेन्द्रिय (सव्वभूदप्प-भूदव्व) सभी जीवों को अपने समान (मण्णंतो वि ण बज्झदे) मानता हुआ भी नहीं बंधता है।
अर्थ-योगयुक्त, विशुद्ध आत्मा, सम्यग्ज्ञानी, जितेन्द्रिय साधु सभी जीवों को अपने समान मानता हुआ भी कर्मों से नहीं बँधता है।
व्याख्या-जो मन, वचन, कायरूप योगों से सहित होता हुआ भी योगयुक्त अर्थात् साधनायुक्त अथवा वृक्षमूलयोग, अभावाकाशयोग तथा आतापन आदि योगों से सहित है। विशुद्धात्मा अर्थात् जिसका आत्मा प्रायः शुभ अथवा शुद्धोपयोग में ही प्रवृति करता है। सम्यग्ज्ञान के बल से जिसने भेद विज्ञान प्रगट किया है तथा जो जितेन्द्रिय अर्थात पंचेन्द्रियों को जीतने वाला है। ऐसा श्रमण संवरतत्त्व का स्वामी अथवा मूल-अधिकारी माना गया है। ___जो इन गुणों से सहित तथा वस्तुनिष्ट-विज्ञान से परिचित है। वह समस्त जीव समूह को निजात्मा के तुल्य समझता हुआ, ज्ञानादिगुणों से युक्त शक्ति अपेक्षा सिद्ध-सदृश समझता हुआ भी कर्म-बंधन का कर्ता नहीं होता है। 'योगयुक्त विजितेन्द्रियोऽहम्' ।।27 ॥
ध्यान-विज्ञान युक्त योगी मुक्त के समान है झाण-विण्णाणसंतुट्ठा, णियट्ठा वीयरागिणो।
मुत्ता व जोगिणो जेसि, समं लोटं च कंचणं ॥28॥ अन्वयार्थ-(झाण-विण्णाण संतुट्ठा) ध्यान-विज्ञान तृप्त (णियट्ठा) आत्मस्थ (वीयरागिणो) वीतरागी (जेसिं) जिन्हें (समं लोठं च कंचणं) पत्थर और स्वर्ण समान है (वे) (जोगिणो) योगी (मुत्ता व) मुक्त के समान कहे गए हैं।
अर्थ-ध्यान-विज्ञान तृप्त, आत्मस्थ, वीतरागी योगी जिन्हें पत्थर व स्वर्ण समान भासते हैं, वे मुक्त के समान कहे गए हैं।
व्याख्या-आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है-'झाणज्झयणं मुक्खं, जइधम्म' (रयणसार-11) अर्थात् यतिधर्म ध्यान और अध्ययन की मुख्यता वाला है। ध्यान 208 :: सुनील प्राकृत समग्र