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समान तेज नहीं है ( णत्थि धण्णसमं पियं) धान्य के समान प्रिय वस्तु नहीं है।
भावार्थ- संसार में बरसते हुए मेघों के जल के समान कोई जल नहीं है । बाहुबल - स्वशक्ति के समान कोई दूसरा बल नहीं, क्योंकि समय आने पर अपनी शक्ति ही काम आती हैं, स्वस्थ आँखों के समान कोई भी प्रकाश नहीं हैं क्योंकि आँख के अभाव में सारे प्रकाश बेकार हैं तथा धान्य- अनाज के समान प्रिय पदार्थ इस धरती पर और कोई नहीं हैं, क्योंकि अनाज से ही वस्तुतः प्राणियों का देह - पोषण होता है।
इनके समान ये ही हैं
णत्थि कामसमो बाही, णत्थि मोहसमो रिऊ ।
णत्थि कोवसमो अग्गी, णत्थि णाणसमं सुहं ॥134 ॥
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अन्वयार्थ – ( णत्थि कामसमो बाही) काम के समान व्याधि नहीं है ( णत्थि मोहसमो रिऊ) मोह के समान शत्रु नहीं है ( णत्थि कोवसमो अग्गी) क्रोध के समान अग्नि नहीं है [और]( णत्थि णाणसमं सुहं) ज्ञान के समान सुख नहीं है।
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भावार्थ- संसार में कामोद्रेक के समान बीमारी नहीं है, क्योंकि कामी मनुष्य जघन्यतम पाप भी कर डालता है। मोह के समान शत्रु नहीं हैं, क्योंकि लौकिक शत्रु को शत्रुबुद्धि से दिखाने वाला यह मोह ही है । क्रोध के समान अग्नि नहीं है क्योंकि लोक प्रसिद्ध अग्नि तो दिखते हुए पदार्थों को जलाती है, किन्तु यह क्रोधरूपी अग्नि बिना स्पष्ट दिखे जीव के गुणों को जला डालती है। तथा सच्चे ज्ञान के समान कोई सुख नहीं, क्योंकि ज्ञान बढ़ने से ही अनाकुलता बढ़ती है और अनाकुलता ही सच्चा सुख है ।
तृण के समान हैं
तिणं बंभविदं सग्गो, तिणं सूरस्स जीविदं ।
जिदक्खस्स तिणं णारी, णिप्फिहस्स तिणं जगं ॥135 ॥
अन्वयार्थ – (तिणं बंभविदं सग्गो) आत्मज्ञानी को स्वर्ग तृण समान है ( तिणं सूरस्स जीविदं ) शूर के लिए जीवन तृण समान है ( जिदक्खस्स तिणं णारी) इन्द्रियजयी के लिए स्त्री तृण समान है (च) तथा ( णिप्फिहस्स तिणं जगं ) निस्पृह मनुष्य के लिए सम्पूर्ण जगत तृण समान है |
भावार्थ - आत्मज्ञान सम्पन्न साधक को स्वर्ग, शूरवीर योद्धा के लिए जीवन, इन्द्रिय-विजयी योगी के लिए सुन्दर स्त्री तथा वीतरागी निस्पृह साधक के लिए सम्पूर्ण जगत तृण के समान तुच्छ जान पड़ता
है
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लोग-णीदी :: 175