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अहिंसा सभी व्रतों की जननी
सयलव्वद - मज्झम्मि, अहिंसा जणणी मदा । खाणी सव्वगुणाणं च भूमी धम्मतरुस्स हि ॥ 6 ॥
अन्वयार्थ – (सयलव्वद - मज्झम्मि) सभी व्रतों में [हि] वस्तुतः (अहिंसा जणणी) अहिंसा व्रत माता के समान (सव्वगुणाणं) सभी गुणों की (खाणी) खान (च) और (धम्मतरुस्स) धर्मरूपी वृक्ष की (भूमी) भूमि (मदा) कहा गया है।
भावार्थ- सभी श्रेष्ठ व्रतों में अहिंसा व्रत को ही वस्तुतः सभी व्रतों को उत्पन्न करने में माता के समान, समस्त गुणों की खान और धर्मरूपी वृक्ष की भूमि कहा गया है। अहिंसा व्रत के बिना अन्य व्रतों का, तपों का निश्चयतः कुछ भी महत्त्व नहीं है। अतः अहिंसा व्रत के परिपालन पर विशेष जोर देना विवेकीजनों का कर्त्तव्य है ।
अहिंसा की महिमा
आऊ बलं सुरूवं च, सोहग्गं कित्ति-पूयणं । अहिंसा - महप्पेण य, सग्गो मोक्खो भवंति हि ॥7 ॥
अन्वयार्थ – (अहिंसा - महप्पेण य) अहिंसा व्रत के माहात्म्य से (आऊ बलं सुरूवं) आयु, बल, सुन्दर - रूप ( सोहग्गं कित्ति - पूयणं) सौभाग्य, कीर्ति, पूजा, (सग्गो) स्वर्ग (य) तथा (मोक्खो) मोक्ष (भवंति ) [ प्राप्त ] होते हैं ।
भावार्थ- सभी व्रतों की जड़स्वरूप अहिंसा व्रत के सम्यक् परिपालन के माहात्म्य से मनुष्य आयु, बल, सुन्दर रूप, सौभाग्यशीलता, ख्याति, पूजा-सम्मान तथा मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग और मोक्ष के उत्तम सुखों को प्राप्त करता है ।
सारभूत है या
संसारे माणुसं सारं, कुलत्तं चावि माणुसे । कुलत्ते धम्मिकत्तं च, धम्मिकत्ते य सद्दया ॥8॥
अन्वयार्थ – (संसारे माणुसं) संसार में मनुष्यता ( माणुसे) मनुष्यत्व में (कुलत्तं) कुलीनत्व (कुलत्ते) कुलीनत्व में (धम्मिकत्तं) धार्मिकत्व (च) और ( धम्मिकत्ते ) धार्मिकता में (चावि) भी (सद्दया) सच्ची दया ( सारं ) सारभूत है।
भावार्थ — इस अनंत संसार में चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि ही सार भूत है, उसमें भी कुलीनता ( आचरणशीलता) सारभूत है, कुलीनता में भी धार्मिकता सारभूत है और धार्मिकता में भी सच्ची दया - करुणा सारभूत है।
णीदि-संगहो :: 131