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जिनस्तुति की महिमा सव्वे रोगा भया सव्वे, सव्वे दुक्खा य दुग्गहा।
जिणिंदत्थुदिमत्तेण, णस्संति णत्थि संसओ ॥3॥ अन्वयार्थ-(सव्वे रोगा) सभी रोग (भया सव्वे) सभी भय (सव्वे दुक्खा) सभी दुःख (य) और (दुग्गहा) दुर्ग्रह (जिणिंदत्थुदिमत्तेण) जिनेन्द्र स्तुति मात्र से (णस्सेंति) नष्ट हो जाते हैं [इसमें] (संसओ) संशय (णत्थि) नहीं है।
भावार्थ-सभी रोग (बीमारियाँ), सभी भय, सभी दु:ख और सभी दुर्ग्रह (खोटे ग्रह) वीतरागी जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करने से ही नष्ट हो जाते हैं, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं करना चाहिए।
जिनपूजा की महिमा जो करेदि जिणिंदाणं, पूयणं ण्हवणं जवं ।
सो पाऊण महारिद्धिं, सग्गं मोक्खं च पावदे ॥4॥ अन्वयार्थ-(जो) जो मनुष्य (जिणिंदाणं) जिनेन्द्र भगवान का (पूयणं) पूजन (ण्हवणं) अभिषेक (जवं) जाप (करेदि) करता है, (सो) वह (महारिद्धि) महारिद्धि को (पाऊण) प्राप्त कर (सग्गं) स्वर्ग (च) और (मोक्खं) मोक्ष को (पावदे) पाता है।
भावार्थ-जो विवेकी मनुष्य प्रतिदिन अत्यन्त भक्तिभाव से जिनेन्द्र भगवान का दर्शन, पूजन, स्तवन, अभिषेक और जप करता है, वह निश्चित ही धन-सम्पत्ति, ख्याति-पूजा आदि महावैभव को प्राप्त करके उत्तम स्वर्ग सुख को और कालान्तर में मोक्ष को प्राप्त करता है।
जिन सेवा का फल जिण-वंदण-सीलस्स, णिच्चं वुड्ढोवसेविणो।
चत्तारि तस्स वड्ढेते आऊ विज्जा बलं जसो॥5॥ अन्वयार्थ-(जिण-वंदण-सीलस्स) जिनेन्द्र-वन्दना के स्वभाव वाले के (णिच्चं) हमेशा (वुड्ढोवसेविणो) वृद्धजनों की सेवा करने वाले (तस्स) उसके (आऊविज्जाबलं जसो) आयु, विद्या, बल [और] यश [ये] (चत्तारि) चार (वड्ढते) बढ़ते हैं।
भावार्थ-वीतरागी जिनेन्द्र भगवान के दर्शन-पूजन में जो निरन्तर लीन रहते हैं तथा जो ज्ञानवृद्ध, चारित्रवृद्ध, तपवृद्ध तथा वयोवृद्ध जनों की हमेशा यथायोग्य-यथाशक्य सेवा करते हैं; उनकी आयु, विद्या, बल और यश ये चार वृद्धि को प्राप्त होते रहते हैं। 130 :: सुनील प्राकृत समग्र